मुख्यपृष्ठस्तंभअर्थार्थ : असमान आय वितरण का क्या हो समाधान?

अर्थार्थ : असमान आय वितरण का क्या हो समाधान?

पी. जायसवाल
मुंबई

अर्थव्यवस्था को लेकर किसी भी राज्य का क्या प्रयास होना चाहिए? उसका उत्तर है कि राज्य के सभी नागरिक सुखी रहें, राज्य में खुशहाली रहे, सबको आय और रोजगार के लिए समतल भूमि मिले और सौदों के माध्यम से संसाधनों का वितरण न्यायपूर्ण हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राज्य सतत प्रयास करता रहता है। आज की तारीख में कुछ चुनिंदा हाथों में ज्यादा संपत्ति हो गई है, जबकि बाकी बड़े हिस्से में कम। ऐसे हालात में इसका समाधान नक्सलवाद या आयातित साम्यवाद जो मार्क्सवाद या लेनिनवाद के नाम से है उसमें नहीं है। इसका जवाब सनातन अर्थशास्त्र के नियमों के तहत आने वाले सनातन साम्यवाद में है, जो गणितीय साम्यवाद की जगह सामाजिक साम्यवाद की बात करता है। सनातन अर्थशास्त्र में साम्यवाद एक अवस्था होती है, जहां सभी संसाधनों के दोहन का अनुकूलतम बिंदु होता है, परिणाम अनुकूलतम सुखदाई होते हैं, जिसमें न किसी प्रकार का संसाधन विस्फोट होता है और न ही संसाधन अपना रौद्र रूप दिखाते हैं। उनके अनुकूलतम सुखमय उपयोग के कारण उनकी उत्पादकता स्तर भी ऊंचा रहता है। यह सभी तरह के संयोजित संसाधनों पर लागू होता है चाहे वो श्रम हो, कच्चा माल हो, मुद्रा हो, तकनीक हो या प्राकृतिक संसाधन हो।
आपने देखा होगा कि इस समस्या के समाधान हेतु आयातित विचार के कारण भारत जैसे लोकतांत्रिक गणराज्य में जहां-जहां संसाधनों को लेकर सरकारों द्वारा अनुकूलतम संतुलन बिंदु नहीं तलाशा गया, वहां-वहां नक्सल समस्या ने जड़ जमाई। अगर इस आयातित विचार से चरमपंथ को निकालकर इसमें समता के लिए अन्त्योदय को शामिल कर लें तो सामाजिक विकास के लिए यह एक अच्छा समाधान होता। आयातित विचारधारा ‘चरमपंथ वामपंथ’ जिसे नक्सलवाद या माओवाद भी कहते हैं आज भी भारत की स्वीकृति नहीं प्राप्त कर सका है, क्योंकि भारत के पास सनातन अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के रूप में अंत्योदय जैसे विचार पड़े हैं इसलिए भारतीय सनातन साम्यवाद के समता के विचार प्रâांस, रूस और चाइना के वामपंथ से अधिक आधुनिक हैं।
मैं जिस सनातन साम्यवाद की बात कर रहा हूं वह यही है कि जो विचारधारा शोषितों और वंचितों को उनके संतोष के स्तर तक उठाने की बात करती है। वामपंथ से ताल्लुक रखने वाले मार्क्स, लेनिन, माओ ने समय-समय पर साम्यता लाने के लिए अपने विकल्प दिए लेकिन वे गणितीय थे, जबकि समाज में केमिस्ट्री चलती है। जरूरी नहीं था कि गणतीय दृष्टि से सही लगने वाली बात हर देश, हर काल में सही हो। आयातित वामपंथ का प्रचलित स्वरूप भी अब धीरे-धीरे कर्मकांडी ही हो रहा है। परंपरा के नाम पर बहुतेरे विरोध चले आ रहे हैं। यह हमारी जिम्मेदारी है कि समय के साथ वामपंथ के नाम पर भारतीय वामपंथ में घुस आई इस परंपरा को खत्म किया जाए, ताकि वामपंथ अपने सनातन साम्यवाद के अपने मूल स्वरूप को प्राप्त करे। अर्थव्यवस्था साम्यता के लिए अन्त्योदय को अपनाए। जरूरत है वामपंथ को अपने मूल विचारधारा पर लौटने की, जो अन्त्योदय को शामिल कर समाज के आर्थिक साम्यता की बात करता है। शोषितों और वंचितों के हक की बात करता है, इसमें शोध की गुंजाइश हो। भारतीय वामपंथियों से ये अपील होनी चाहिए कि वे भी परंपरावादी न बनते हुए लेनिन, मार्क्स और माओ के विचारधारा से भी आगे जाकर अन्त्योदय में साम्यता का नया सूत्र खोज सकते हैं। भारत में वर्ग संघर्ष नहीं, वर्ग संतुलन ही सनातन साम्यवादी अर्थव्यवस्था का मूल है, इसमें `सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ छुपा हुआ है, जिसमें किसी का अहित नहीं सबका हित है।
आयातित विचार को मानने वाले बहुत से विद्वानों ने समाज और राज्य में साम्यता लाने के लिए वर्ग संघर्ष को अनिवार्य बताया है। लेकिन सनातन साम्यवादी अर्थव्यवस्था में इसे अनिवार्य मानने की जरूरत नहीं है। वर्ग संघर्ष समानता प्राप्त करने के लिए एक कृत्रिम अवस्था है। प्रत्येक मानव के बीच एक संतुष्टि बिंदु होता है, व्यवस्था का कार्य होता है उस संतुष्टि बिंदु को पहचानना जब तक कोई व्यक्ति भले ही किसी वर्ग में वर्गीकृत हो। वह संघर्ष तभी तक करता है, जब तक कि वह अपने संतुष्टि बिंदु को प्राप्त नहीं कर लेता है। एक बार जब वह संतुष्टि बिंदु को प्राप्त कर लेता है तो वह समाज के विभिन्न वर्गों से कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं करता।
उदाहरण के तौर पर कस्बों और गांवों का एक सामाजिक वर्गीकरण और उसका एक केमिस्ट्री होता है उसमें अमीर, मध्यम और गरीब परिवार होते हैं। इन तीनों वर्गों में अंतर है लेकिन आप इन्हें संघर्ष करते हुए नहीं पाएंगे अगर इनकी न्यूनतम दैहिक और सामाजिक आवश्यकताएं पूरी होती हैं। बड़े वैâनवास पर इसे देखना हो तो एक उदाहरण मुंबई का भी ले सकते हैं। एक पार्टी में आप मुकेश अंबानी अमिताभ बच्चन और सचिन तेंदुलकर को ले लीजिए, उस पार्टी के समय काल में भौतिक रूप से इन तीनों के बीच जमीन-आसमान की खाई है। मुकेश अंबानी के धन की तुलना में अमिताभ बच्चन और सचिन कम हैं और वैसे सचिन और अमिताभ में भी अंतर है, लेकिन क्या आप वहां पर इनके बीच कोई अंतर या वर्ग संघर्ष पाएंगे, आप नहीं पाएंगे क्योंकि सभी ने अपने संतुष्टि बिंदु को प्राप्त कर लिया है। अगर इनमें से कोई, मान लीजिए अमिताभ बच्चन ही कोई संघर्ष कर रहे हैं तो वह अपने खुद के महत्तम अनुकूलतम सर्वोत्तम संतुष्टि मूल्य को प्राप्त करने के लिए न कि अपने से भिन्न वर्ग मुकेश अंबानी या सचिन की तुलना में अमिताभ कोई वर्ग संघर्ष कर रहें हैं, इनकी सापेक्षता में वह अपने संतुष्टि बिंदु को प्राप्त कर चुके हैं। वास्तव में संतुष्टि बिंदु ही वर्गों का संतुलन बिंदु होता, जहां वर्ग संघर्ष समाप्त होता है। इस संतुष्टि बिंदु की अवस्था में समाज के विभिन्न वर्ग अपनी तरह की एक साम्यता प्राप्त करते हैं और यह बिंदु ही साम्यवादी संतुलन का बिंदु होता है, जहां समाज के सभी वर्ग संतुलन में होते हैं और यही समाधान का सूत्र भी है। इसलिए राज्यों का कर्तव्य होता है कि वह ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ की अवधारणा का पालन करते हुए अपनी जनता के उन संतुष्टि बिंदुओं का शोध करें, जहां साम्यवादी संतुलन का बिंदु हो और जहां समाज के सभी वर्ग संतुलन मे हों। यदि राज्य इन बिंदुओं पर शोध कर अपने राज्य की नीतियां बनाएंगे तो ऐसे राज्यों में कभी भी वर्ग संघर्ष नहीं होगा।
(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री व सामाजिक तथा राजनैतिक विश्लेषक हैं।)

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