गुमशुदा

गुम हो गया खुद ही मैं
अपनों की भीड़ में,
खुद को ही राख करता रहा
रिश्ते निभाने की रीत में।

बह गया खुद के सवालों में,
अधूरी सी हर बात लगी,
जिनसे जुड़े थे मन से कभी,
अब वही दूर की बात लगी।

पहचान थी कुछ खास मेरी,
सपनों की तरह चमकती हुई,
पर दूसरों की चाहतों में
हर परत थी मुरझाती गई ।

अपनों के दोहरे चेहरों ने
छलनी कर दिया ऐतबार को,
मुट्ठी में जैसे रेत फिसले
वैसे ही खो दिया आधार को।

समझदारी का ढोंग लिए
हर शख्स मिला यहाँ,
जिनसे दिल की उम्मीद थी
वही खेलते रहे खेल यहाँ ।

सबके लिए बना रहा आइना,
खुद को मगर देख न पाया,
दूसरों की खुशियों में खोया यूं,
अपनी परछाई तक भूल आया।

समान जहाँ भर का जुटाता,
जैसे यहीं सदा रहना है,
पर भूल गया सच्चाई
कि एक दिन यहाँ से जाना है।

वो हंसी जो बांटी सबके संग,
अब खामोशी में घुल गई है,
दिल की बुनियाद पर जो चोट लगी ,
वो गहरी दरार में बदल गई हैं।

आज देखता हूँ उस अक्स को,
जो आईने में धुंधला पड़ा है,
जिसे मैंने खुद ही छोड़ा कहीं,
अपनों के सपनों में क़ैद पड़ा है।

मुनीष भाटिया 

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