डॉ. दीनदयाल मुरारका
एक समय की बात है दक्षिण भारत में वीरसेन नामक राजा राज्य करते थे। वे थे तो बहुत प्रतापी पर उन्हें अपनी प्रशंसा सुनना काफी अच्छा लगता था। चापलूस दरबारी उनकी तथा राज्य के शासन व्यवस्था की हमेशा प्रशंसा करते रहते थे, जिससे राजा को राज्य की वास्तविक स्थिति का पता नहीं चलता था।
राज्य में पंडित विष्णुदेव नामक एक निर्धन ब्राह्मण रहते थे, जो भिक्षा मांगकर किसी तरह अपने परिवार का पालन करते थे। एक बार अकाल पड़ा और ब्राह्मण को भिक्षा मिलना बंद हो गया। बच्चों के पेट में अन्न गए तीन दिन हो गए। पंडितजी जब तीसरे दिन भी बिना भिक्षा के खाली हाथ लौटे तो पत्नी रोते हुए बोली, ‘मुुझसे बच्चों की हालत देखी नहीं जाती। कोई भी मां अपने बच्चों को इस तरह रोते हुए नहीं देख सकती। तुम्हें कुछ न कुछ करना होगा।’ पंडित जी ने झल्लाकर कहा, ‘क्या करूं? अब कुछ काम नहीं है, भिक्षा भी नहीं है, तो चोरी करूं क्या?’ पत्नी ने कहा, ‘हां, चोरी करो क्योंकि इसके सिवा और कोई चारा नहीं बचा है। हमें बच्चों का भरण-पोषण भी तो करना है।’
पंडित जी ने अनेक तर्कों द्वारा पत्नी को मनाने का प्रयास किया पर वह पत्नी की जिद के आगे नतमस्तक हो गए। रात को वह राजमहल के भंडार क्षेत्र में पहुंचे। उन्होंने अपनी पगड़ी उतारी और उसमें अनाज भरकर गट्ठर बांधा और तेजी से बाहर आ गए। लेकिन घर लौटकर पंडित जी को नींद नहीं आई। वह रात भर करवटें बदलते रहे।
सुबह होते ही वे सीधे राजदरबार जा पहुंचे। राजा को उन्होंने अपना अपराध सुनाया तथा अपराध की सजा देने का अनुरोध किया। पंडित जी चाहते थे कि उन्हें चोरी की सजा अवश्य मिले। सारी कथा सुनकर राजा उदास हो गया। थोड़ी देर सोचने के बाद उन्होंने कहा, ‘सजा तो मैं अवश्य दूंगा पर आपको नहीं, बल्कि अपने आप को। आज से मैं घूम-घूम कर प्रजा के सुख-दुख की जानकारी लूंगा, ताकि किसी को खाना खाने के लिए इस तरह चोरी करने की आवश्यकता न पड़े। चूंकि आपने अपनी ईमानदारी प्रमाणित कर दी है इसलिए मैं आपको दंड से मुक्त कर रहा हूं। इस प्रकार एक ईमानदार व्यक्ति के कारण पूरे राज्य की प्रजा सुखी हो गई।