मुख्यपृष्ठस्तंभमुंबई मिस्ट्री : कस्तूरबा, महात्मा गांधी की हमकदम

मुंबई मिस्ट्री : कस्तूरबा, महात्मा गांधी की हमकदम

विमल मिश्र
मुंबई

स्वतंत्रता संग्राम में कस्तूरबा गांधी का योगदान सिर्फ महात्मा गांधी की अर्धांगिनी होने से नहीं है। वे आखिरी सांस तक पति के हर फैसले में साथ खड़ी रहीं। उनके पग से पग और कंधे से कंधा मिलाकर चलीं। पति, बच्चे और घर संभालने वाली आदर्श पत्नी, मां और अच्छी गृहिणी बनीं, पर वे केवल पति का अनुकरण करनेवाली पतिव्रता स्त्री ही नहीं थीं, बल्कि उनके समर्पण, त्याग, बलिदानों और आंदोलनों में भी बराबर की हिस्सेदार थीं। आत्मनिर्भर और साहसी। महिला सशक्तीकरण की मिसाल। महात्माजी के कायम किए आश्रम-जो उन्हीं की देख-रेख में चलते रहे-वे ही नहीं, आंदोलनकारी और जेलों में बंद वैâदी तक उनकी ममता से अछूते नहीं रहे। इसीलिए प्यार और सम्मान के रिश्ते से ‘बा’ कहलार्इं। अगर गांधीजी को ‘राष्ट्रपिता’ का दर्जा हासिल है तो कस्तूरबा इसी अधिकार से ‘राष्ट्रमाता’ हैं।
गांधीजी ने खुद लिखा है, ‘जो लोग मेरे और बा के निकट संपर्क में आए हैं उनमें अधिक संख्या तो ऐसे लोगों की है, जो मेरी अपेक्षा बा पर कई गुना अधिक श्रद्धा रखते हैं। अगर बा का साथ न होता तो मैं इतना ऊंचा उठ ही नहीं सकता था। मेरी पत्नी मेरे अंत: को जिस प्रकार हिलाती थी, उस प्रकार दुनिया की कोई स्त्री नहीं हिला सकती।’ अपनी अर्धांगिनी को वे अपना गुरु मानते थे।
११ अप्रैल, १८६९ को काठियावाड़ के पोरबंदर नगर में जन्मी कस्तूरबा जब सात साल की थीं, तब छह साल के मोहनदास के साथ उनकी सगाई हो गई और तेरह साल की आयु में विवाह। उन्हें चार बेटे हुए हरिलाल, मणिलाल, रामदास और देवदास।
६२ वर्षों के साथ में कई बार पति-पत्नी के बीच मतभेद भी हुए, पर इसे मनभेद की नौबत तक उन्होंने नहीं जाने दिया। बापू के इंग्लैंड और फिर दक्षिण अप्रâीका जाने के बाद १२ वर्ष दोनों को प्राय: अलग-अलग रहना पड़ा। १८९६ में बापू भारत आए, तब बा को दक्षिण अप्रâीका अपने साथ ले गए। तभी से बा बापू का अनुगमन करती रहीं। हर कदम पर परछार्इं की तरह साथ रहीं। हर पैâसले में उनका साथ दिया। उन्होंने अपने जीवन को भी पति की तरह सादा बना लिया। बापू के अनेक उपवासों में बा सदैव उनके साथ रहीं। एक समय ही भोजन करने का निश्चय किया। ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में गांधीजी ने लिखा है, ‘जैसे-जैसे मैं कस्तूरबा को जानता गया, वैसे-वैसे उनके प्रति प्रेम बढ़ता गया और उनका ज्यादा सम्मान करने लगा।’
बापू के आंदोलनों में साथ
बापू के आंदोलनों को भी बा का सदैव साथ मिला। इसकी शुरुआत दक्षिण अप्रâीका से हो गई थी। १९१३ में वहां एक ऐसा कानून पास हुआ, जिससे ईसाई धर्म के अनुसार और विवाह विभाग के अधिकारी के यहां दर्ज किए गए विवाह के अतिरिक्त अन्य विवाहों की मान्यता अमान्य की गई थी। गांधीजी ने इसके विरुद्ध जो सत्याग्रह छेड़ा था उसमें सम्मिलित होकर बा जेल गर्इं। जेल में फलाहार न मिलने पर उपवास करना शुरू कर दिया। आखिकार, पांचवें दिन अधिकारियों को झुकना पड़ा। जब १९३२ में हरिजनों के प्रश्न को लेकर बापू पुणे की येरवडा जेल में आमरण अनशन पर थे तब बा साबरमती जेल में थीं। उन्होंने येरवडा आने की जिद पकड़ ली और आर्इं भी। चंपारण के सत्याग्रह के समय बा भी तिहरवा में रहते हुए वहां के गांवों में घूमतीं, दवा बांटतीं और स्थानीय लोगों को पढ़ाई, सफाई, अनुशासन आदि के महत्व के बारे में बतातीं। निलहे गोरों ने बा की अनुपस्थिति में उनकी उस झोपड़ी को जब आग लगवा दी, जहां स्थानीय बच्चे पढ़ने आते थे तो बा ने सारी रात जागकर घास का एक दूसरा झोपड़ा खड़ा किया। इसी प्रकार खेड़ा सत्याग्रह के समय उन्होंने स्त्रियों के बीच घूम-घूमकर उन्हें प्रोत्साहित किया। पुलिस के अत्याचारों से पीड़ित जनता की उन्होंने कई बार सहायता की।
गांधीजी के ‘स्वतंत्रता कुमुक’ की पहली महिला प्रतिभागी कस्तूरबा ही थीं। स्वदेशी आंदोलन के दौरान १९२२ में बापू जब गिरफ्तार हुए और उन्हें छह साल की सजा हुई, वे विदेशी कपड़ों के त्याग के लिए गुजरात के गांवों में घूम-घूम कर लोगों को ललकारती फिरीं। १९३० में दांडी कूच और धरासणा के धावे के दिनों में भी उन्होंने बापू के जेल जाने पर उनकी अनुपस्थिति की पूर्ति की। १९३२ और १९३३ का अधिकांश समय उनका जेल में ही बीता।
फिर आया ९ अगस्त, १९४२ – ‘भारत छोड़ो’ का दिन। कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं के गिरफ्तार हो जाने के बाद बा ने मुंबई के शिवाजी पार्क में बापू की जगह भाषण करने का निश्चय किया पर पार्क के द्वार पर पहुंचने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। दो दिन बाद वे पुणे के आगा खां पैलेस भेज दी गर्इं, जहां बापू गिरफ्तारी के बाद पहले से थे। उनकी तबीयत पहले से ही खराब चल रही थी। जनवरी, १९४४ में जनवरी में उन्हें दो बार दिल का दौरा पड़ा। २२ फरवरी, १९४४ को पड़ा दिल का भयानक दौरा उनके प्राण ले गया। उनकी आखिरी सांस बापू की गोद में ही छूटी।
इंदौर में कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट आज भी बा की याद दिलाता है। राजकोट से १५ किलोमीटर दूर जिस त्रांबा गांव में राजकोट के ठाकुर साहब के प्रजा के प्रति वादाखिलाफी के विरुद्ध १९३९ में किए सत्याग्रह के अभियोग में वे ११ फरवरी से ६ मार्च तक नजरबंद रखी गई थीं, वहां ‘कस्तूरबा धाम’ नाम से एक स्मारक और स्कूल है। चंपारण में उनके द्वारा शुरू स्कूल आज भी चल रहा है। पुणे के सर आगा खां पैलेस में जहां उनका दाह संस्कार किया गया, उनकी समाधि एक तीर्थस्थल बन गई है।

(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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