मुख्यपृष्ठसंपादकीयहां, माय लॉर्ड!.. ‘तारीख पे तारीख' से लोग थक चुके हैं

हां, माय लॉर्ड!.. ‘तारीख पे तारीख’ से लोग थक चुके हैं

भारत के मुख्य न्यायाधीश कभी-कभार न्याय व्यवस्था पर अच्छे प्रवचन देते हैं, लेकिन ऐसे खोखले प्रवचनों से क्या होगा? इससे पहले भी कई मुख्य न्यायाधीश न्याय व्यवस्था के भ्रष्टाचार, कछुआ चाल, राजनीतिक दबाव पर व्याख्यान दे चुके हैं। इसलिए मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ साहब ने अब कोई नई जानकारी दी है, ऐसा नहीं है। लोग ‘तारीख पे तारीख’ से थक चुके हैं। वे समझौता चाहते हैं, ऐसा चंद्रचूड़ साहब ने कहा है। न्यायमूर्ति का ऐसा कहना हमारी न्याय व्यवस्था की हार है। मराठी में एक कहावत है कि ‘बुद्धिमानों को अदालत की सीढ़ियां नहीं चढ़नी चाहिए।’ चंद्रचूड़ मराठी हैं। ये कहावत तो उन्हें पता ही होगी। दूसरा यह कि कानून गधा है, ऐसा बारंबार मराठी में कहा जाता है। कानून का गधे में रूपांतरण हुआ है तो वो किन कारणों से हुआ, क्या उसके लिए ‘तारीख पे तारीख’ जिम्मेदार है? इसका आत्मचिंतन न्याय व्यवस्था को ही करना होगा। निचली अदालतों, उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों में लाखों मामले लंबित हैं। जनवरी २०२४ तक सुप्रीम कोर्ट में ८५ हजार मामले प्रलंबित होने की बात सामने आई है। यदि सर्वोच्च न्यायालय का यह हाल है तो जिला न्यायालयों, सत्र न्यायालयों, उच्च न्यायालयों का क्या हाल होगा? देश के उच्च न्यायालयों में लगभग साठ लाख मामले लंबित हैं और लोग अदालत की दहलीज पर अपने जूते घिसकर थक चुके हैं, कुछ की तो मौत हो चुकी है। देशभर की जिला अदालतों, मजिस्ट्रेट अदालतों में लंबित मामलों की संख्या लगभग साढ़े चार करोड़ है और यह संख्या न्याय व्यवस्था के लिए चौंकाने वाली है। इसका मतलब यह है कि गांवों में साढ़े चार करोड़ लोग न्याय का इंतजार कर रहे हैं और ‘तारीख पे तारीख’ के चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं। देश के सर्वोच्च न्यायालय और खास तौर पर मुख्य न्यायाधीश पर इस बाबत जिम्मेदारी है। चंद्रचूड़ का कहना सच ही है। लोग ‘तारीखों’ से थक चुके हैं, लेकिन ये तारीखें दे कौन रहा है? अदालत में ‘तारीख’ का मामला एक गूढ़ अंधाधुंधी है। इसलिए न्याय और कानून की गरिमा कायम नहीं है। चंद्रचूड़ ने पद संभालते समय कहा था कि हम सुप्रीम कोर्ट में ‘तारीख पे तारीख’ का चक्र बदलना चाहते हैं। चंद्रचूड़ ने कहा, वकील आते हैं और अगली तारीख मांगते हैं, लेकिन उन्हें यह एहसास नहीं होता कि जज उस मामले का अध्ययन करने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं। उनकी मेहनत पर पानी फिर जाता है। सुप्रीम कोर्ट में भी तारीखें पड़ती हैं और वह चंद्रचूड़ की अदालत में भी पड़ रही हैं। पंद्रह हजार मामले ऐसे हैं कि जिनकी दस वर्ष से सुनवाई शुरू है और उनमें एक प्रमुख मामला शिवसेना का ही है और वह न्या. चंद्रचूड़ के समक्ष ही चल रहा है। महाराष्ट्र में ढाई साल से एक संविधानेतर सरकार चल रही है, सुप्रीम कोर्ट ने उस पर मुहर लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल की तब की कार्यवाही, बहुमत परीक्षण, व्हिप, गटनेता पद पर हुआ शिंदे-मिंधे मंडल का चयन, ये सब अवैध है और सभी मामलों को निर्णय के लिए विधानसभा अध्यक्ष के पास भेज दिया, लेकिन विधानसभा अध्यक्ष भी एक राजनीतिक व्यक्ति हैं और उन्होंने ही असंवैधानिक सरकार को बचाने के लिए संविधान के दसवें शेड्यूल के प्रावधानों की अनदेखी कर शिवसेना और पार्टी का चुनावचिह्न घाती गुट को दे दिया। चुनाव आयोग ने भी इस पर निष्पक्षता से काम नहीं किया। इन सभी मामलों का निपटारा सुप्रीम कोर्ट को उसी समय करके संविधान को बरकरार रखना चाहिए था, लेकिन वहां भी ‘तारीख पे तारीख’ ही चल रही है। चंद्रचूड़ साहब के नाती-पोते जब सुप्रीम कोर्ट में विराजमान होंगे तभी इस मामले में न्याय मिलेगा, ऐसा अब मजाक में कहा जाने लगा है। असंवैधानिक सरकार महाराष्ट्र में पैसों का भ्रष्ट कारोबार कर रही है। उसके लिए अदालत की ‘तारीख पे तारीख’ की नीति ही जिम्मेदार है। न्या. चंद्रचूड़ की ही अदालत में ‘तारीख पे तारीख’, वह भी असंवैधानिक सरकार के मामले में चल रही है तो लोगों का शक बढ़ जाता है। ऐसे मामले में सुप्रीम कोर्ट पर कहीं दिल्ली के हुक्मरानों का कोई दबाव तो नहीं है? ऐसी शंका उत्पन्न होती है। क्योंकि कुल मिलाकर देश के मौजूदा वातावरण में इसकी शंका बढ़े, ऐसा ही है। संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट की है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का संविधान देश की ताकत है। यदि शासकों द्वारा इस शक्ति को कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा है तो मुख्य न्यायाधीश को एक चौकीदार के रूप में काम करना चाहिए। पीड़ितों, गरीबों, कमजोर लोगों को न्याय मिलना ही चाहिए। इसके साथ ही सत्ता और पैसों के बल पर संविधान को पैरों तले रौंदने वालों को सजा होना जरूरी है। लोग अब न्यायालय में जाना ही नहीं चाहते और फिर भी देश में न्यायालयों की शृंखला खड़ी है। अदालतें निष्पक्ष नहीं रही हैं और अदालतों पर दबाव है, ऐसा कई न्यायाधीशों ने सेवानिवृत्ति के बाद कहा है। निवृत्त हो चुके न्यायाधीश सरकार से राज्यपाल, उच्चायुक्त, न्यायाधिकरण का अध्यक्ष पद पाना चाहते हैं, वे लोकसभा और राज्यसभा में जाना चाहते हैं। ऐसी मनोवृत्ति वाले न्यायाधीश कानून और न्याय का पक्ष नहीं रख पाते। वे ‘तारीख पे तारीख’ के खेल में फंस जाते हैं। शिवसेना में फूट और दलबदल की सुनवाई का कोर्ट चाहे तो चार दिन में पैâसला हो जाए, दलबदलुओं को सबक मिल सकता है, ऐसा कानून कहता है, लेकिन मुख्य न्यायाधीश की अदालत में तीन साल से सिर्फ तारीखें ही पड़ रही हैं। यह असंवैधानिक है। लोग ‘तारीख पे तारीख’ से थक चुके हैं माय लॉर्ड!

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