विवेक अग्रवाल
हिंदुस्थान की आर्थिक राजधानी, सपनों की नगरी और ग्लैमर की दुनिया यानी मुंबई। इन सबके इतर मुंबई का एक स्याह रूप और भी है, अपराध जगत का। इस जरायम दुनिया की दिलचस्प और रोंगटे खड़े कर देनेवाली जानकारियों को अपने अंदाज में पेश किया है जानेमाने क्राइम रिपोर्टर विवेक अग्रवाल ने। पढ़िए, मुंबई अंडरवर्ल्ड के किस्से हर रोज।
उसे भी विधायकी का शौक चर्राया था। वह भी नेताजी होने की ओर चल पड़ा। अबू सालेम ने भी अरुण गवली की तरह अनोखा ख्वाब देखा। उसे भी लगा कि आज जो पुलिस वाले उसे दुत्कारते हैं, कल उसे सलामी देंगे। उसे जो आज जेलों में ठूंसते हैं, वे ही कल उसके साथ विधानसभा में बैठैंगे। जो जनता उससे भयभीत होकर भागती है, कल उसके दरबार में भीड़ की शक्ल में मौजूद होगी।
नवंबर २००६ में अबू ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में मुबारकपुर से बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव लड़ने का मन बनाया। मतदाता सूची में नाम दर्ज करवाने के लिए आवेदन दिया। अबू के वकील अशोक सरावगी के मुताबिक, तमाम जरूरी दस्तावेज संबंधित विभागों को भेजे। पहले तहसील दफ्तर में दस्तावेज गए, फिर जिलाधीश दफ्तर में भेजे। इससे भी पहले, अक्टूूबर २००६ में ही, अबू की तस्वीरों के साथ बैनर और पोस्टर चारों तरफ चस्पा हो गए। इनमें वो लोगों को दीवाली और ईद की मुबारकबाद देता दिख रहा था। ये पोस्टर बहुतायत से मुस्लिम बहुल इलाके में ही लगे। वकील अशोक सरावगी और अबू का परिवार चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी उठाने लगे। उन्होंने दावा किया कि कुछ राजनीतिक दलों से सहयोग करने की चर्चा जारी है।
यह तो कार्यक्रम और योजना थी कि चुनाव लड़ेंगे, लेकिन सच क्या रहा। अबू ने न जाने किस नामालूम कारण से चुनाव नहीं लड़ा। पुलिस ने दावा किया कि वो डर गया। खबरियों ने कहा कि डी-कंपनी के तयशुदा हमले के कारण वह पीछे हट गया। राजनीतिक पंडितों ने कहा कि जीत तय थी, लेकिन राजनीतिक दबाव के आगे झुकना पड़ा। जो भी हुआ… सच ये था कि ‘अबू भाई’ कभी ‘एमएलए अबू सालेम’ नहीं बन सका और एक ख्वाब फिर अधूरा ही रह गया।
ये कहा जाता है-
‘इतना पब्लिकसिटी कर दिया, अबी पबलिक क्या बोलेंगा, सोच के सोचो भाय?’
डी-कंपनी का संप्रदाय!
डी-कंपनी में शामिल होने के लिए कुछ हिंदू गुंडों ने इस्लाम कबूल किया, यह सर्वविदित तथ्य है। ये चंद लोग जानते हैं कि डी-कंपनी के कुछ ऐसे बंदे हुए हैं, जिन्होंने लश्करे-तैय्यबा के साथ काम किया और जिन्होंने ये ‘जोखिम’ उठाया तो उन्हें ‘बहुत कुछ’ गंवाना भी पड़ा। आप पूछेंगे नहीं कि वो क्या था?
पुलिस का दावा है कि ऐसे बंदों को अपना सुख, चैन, परिवार, देश, पहचान ही नहीं, अपना संप्रदाय तक बदलने पर मजबूर होना पड़ा। वे चाहे जिस संप्रदाय से ताल्लुक रखते हों, उन्हें अहले हदीस संप्रदाय का नुमाइंदा बनना पड़ा।
भारतीय खुफिया एवं सुरक्षा एजेंसियों के एक अधिकारी जो डी-कंपनी के कारनामों पर पैनी निगाह रखते हैं, साफ कहते हैं कि इस गिरोह के ढेरों सदस्यों ने अहले हदीस की मान्यताओं के मुताबिक तब चलना शुरू किया, जब वे लश्कर के करीब हुए। २२ दिसंबर १९०६ को मरकज-ऐ-जमाईत अहले-हदीस की स्थापना इस्लामी शिक्षा को विस्तार देने के लिए हुई थी। यह कट्टरपंथी संप्रदाय एक वहाबी इस्लामी विद्वान ने स्थापित किया था। १९४७ में इस पर काफी परेशानियां आर्इं, क्योंकि भारत में इसके कम केंद्र थे। अहले हदीस इतना कट्टरवादी था कि उसके समर्थकों ने दरगाह तक जाना बंद कर दिया। कव्वालियां सुनना भी उनके लिए हराम था। इसका समर्थक हफीज सईद बाकी संप्रदायों के खिलाफ भी जहर उगलता है। वह मानता है कि इस्लाम ही दुनिया पर राज करेगा।
आतंकी गिरोह लश्कर से संबंध बनने के पहले तक डी-कंपनी के लिए जाति, संप्रदाय, धर्म इत्यादि के मायने न थे। गिरोह में हर धर्म, प्रांत, भाषा, संप्रदाय, जाति के बंदे थे। सब अपना-अपना काम करते थे। जबसे उनका संबंध लश्कर से बना, इस संप्रदाय विशेष की तरफ उनका झुकाव बढ़ा। इससे किसी को फायदा हो न हो, आतंकी गिरोहों और पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई को काफी फायदा पहुंचा। वे आखिरकार हिंदुस्तान की मुकम्मिल तबाही ही नहीं चाहते बल्कि उसे फतह करने का ख्वाब भी देख रहे हैं।
इन हालात से भलीभांति वाकिफ बंदे की खास टिप्पणी-
‘थूक चाट के भूक नहीं मिटता सर, क्या करेंगा… चेंज बोले तो… चेंज।’
(लेखक ३ दशकों से अधिक अपराध, रक्षा, कानून व खोजी पत्रकारिता में हैं, और अभी फिल्म्स, टीवी शो, डॉक्यूमेंट्री और वेब सीरीज के लिए रचनात्मक लेखन कर रहे हैं। इन्हें महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी के जैनेंद्र कुमार पुरस्कार’ से भी नवाजा गया है।)