शुष्क धरती बंजर भूमि
नहीं छाया घने तरुवर की।
व्यग्र चित, शांत न रह पाती,
पीछे छोड़ नीड़ अपने को
दूर-दूर दाना चुगने जाती
मैं नन्ही चिरैया मरुस्थल की।
संचित कर विश्वास अपने में
उड़ चली नील गगन में
दिशा पकड़ी उत्तर की मैंने
अपने डैनों की सामर्थ्य
मुझे अब मापनी होगी।
मैं चिरैया मरुस्थल की
हरी भरी धरा दिखी मुझे
खेतों में गहरी हरियाली
लदी फलों से वृक्षों की डाली-डाली
पुष्पित पुष्पों से हुईं लताएं भारी
मैं चिरैया…
इंद्रधनुष सी फुलवारी दिखती
चटक रंगों की तितलियां उड़तीं
भंवरों की गुंजन से गूंज रही दिशाएं सारी।
मैं चिरैया…
मुझे न दिखा साथी कोई अपना
लगा यह तो देश पराया
लौट रहीं हूं भारी मन ले
दी तसल्ली अपने को मैंने
मुझे मेरी मरुभूमि ही प्यारी।
-बेला विरदी