मुख्यपृष्ठनमस्ते सामनाकभी बंद कमरे भी छोड़

कभी बंद कमरे भी छोड़

कभी बंद कमरे भी छोड़
कुछ और भी है इसके आगे
क्यूं तू वक्त खपा रहा फिजूल में,
कोई और भी देता है जवाब
निकल तू भी देख ख्वाब…
बीतती है कैसे शाम की उलझन
हथेली पे कैसे होते टिफिन के ढक्कन
एक मुसाफिर आता है, एक मुसाफिर जाता है
पर रोज सामने से गुजरता है
दुनिया की हर तस्वीरों से मंहगी है ये,
जो कभी पराए भी मिला करते हैं।
पांव जलते हैं पत्थरों से
तब जागे आवाज आती है सीने से
भाग रे तू कमाने परदेस,
छोड़ पराया अपना देस
झांकती रहती हैं मां खिड़कियों से,
सोचती बच्चा फिर संभलेगा कैसे
निकल तो रहा है घर से,
पर कलेजा कैसे हो ठंडक इन मोह से,
आसान नहीं है घर की थाली छोड़ना
आसान नहीं है वो बिस्तर छोड़ना
मां को चुप करना,
बीबी से वादा करना…
कभी बंद कमरे भी छोड़
कुछ और भी है इसके आगे…।
-मनोज कुमार
गोण्डा, उत्तर प्रदेश

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