निहाल

मां के हाथों से छिटक कुछ बीज
आंगन की मिट्टी पर जा गिरे।
आस्था की ऊर्जा, वात्सल्य की नमीं से
नन्हें -नन्हें बिरवा धरती से
ऊपर उठ अपने, किसलय पर इतरा रहे।
रोम-रोम हो जाता पुलकित, जब
मां के कदम आंगन में पढ़ते।
बिछिया पायल महावर से सजे पग
नाप रहे कदम हौले-हौले।
वृंदा कर सींचित, देती दीप जला
कर वंदना जोड़ हाथ,माथा देती नवां।
गीली केश राशी से झरती जल की बूंदे
लगता झर रहे पल्लवों से कण तुषार।
मां के चरणों को छूती गीली माटी
तिलक बन सज गई मेरे भाल।
देख मां का देवत्व रूप साक्षात
चकित हो मैं हो गई निहाल-निहाल।

बेला विरदी।

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