सामना संवाददाता / लखनऊ
लोकसभा चुनाव में भाजपा को यूपी से करारा झटका लगा है। खास बात यह है कि यूपी की जनता ने भाजपा को ही नहीं, बल्कि उसके सहयोगियों को भी धूल चटाई है। इस चुनाव में भाजपा के अधिकांश सहयोगी दल भी उम्मीद के अनुरूप प्रदर्शन करने में विफल रहे। भाजपा ने इस चुनाव में अपने चार सहयोगियों, पश्चिम यूपी में राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) और पूर्वांचल में निषाद पार्टी, अपना दल (सोनेलाल) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। यूपी की राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो इन चारों दलों की पार्टियों को जाट, निषाद, कुर्मी और राजभर जैसी अन्य पिछड़ा वर्ग जातियों का समर्थन प्राप्त है।
जयंत सिंह की रालोद चुनाव से ठीक पहले विपक्ष से सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल हुई थी, उसने अपनी दोनों सीटों-बागपत और बिजनौर पर जीत दर्ज की है। हालांकि, पश्चिम यूपी की दो प्रमुख सीटों- मुजफ्फरनगर और शामली में उसे हार का सामना करना पड़ा।
साल २०१४ और २०१९ के चुनावों में दो सीटें जीतने वाला अपना दल इस चुनाव में केवल एक सीट जीतने में सफल रहा। पार्टी नेता अनुप्रिया पटेल ने वाराणसी से सटी सीट मिर्जापुर मात्र ३७,८१० वोटों के अंतर से जीती है।
वहीं अपना दल रॉबर्ट्सगंज की एससी आरक्षित सीट पर जीत हासिल करने में विफल रही। इस सीट से सपा प्रत्याशी छोटेलाल खरवार ने अपना दल की प्रत्याशी रिंकी कोल को १.२९ लाख वोटों से हराया है।
निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद को संत कबीर नगर सीट से सपा के उम्मीदवार लक्ष्मीकांत निषाद ९२,००० से अधिक वोटों से मात दी। प्रवीण निषाद, निषाद पार्टी से जुड़े होने के बावजूद सीट-बंटवारे में हुए समझौते के तहत एक बार फिर भाजपा के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़े थे।
भाजपा के सहयोगियों में से सबसे शर्मनाक हार पूर्वांचल के घोसी क्षेत्र में हुई, जहां सपा के राजीव राय ने सुभासपा के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर के बेटे अरविंद राजभर को १.६२ लाख वोटों से हराया. ओम प्रकाश राजभर २०२२ में सपा के नेतृत्व वाले गठबंधन के साथ मिलकर २०२२ का विधानसभा चुनाव लड़ने के बाद एनडीए में लौट आए थे, जिसके बाद से उनके समुदाय के लोगों के भीतर उनके प्रति नाराजगी थी।