कविता श्रीवास्तव
सांसद या विधायक अब पैसे या गिफ्ट लेकर सदन में वोट देने या भाषण देने पर बख्शे नहीं जाएंगे। उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का मुकदमा चलेगा। यह पैâसला देश के सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। वह भी एक-दो नहीं पूरे सात जजों की पीठ का यह पैâसला है। १९९३ में झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों ने अपना वोट देकर तत्कालीन पी.वी. नरसिंहराव सरकार को अविश्वास प्रस्ताव से बचाया था। लेकिन सांसदों पर धन लेने के आरोप लगे थे। उन सांसदों के खिलाफ मुकदमा चलाने से सुप्रीम कोर्ट ने छूट दे दी थी। अब सात सदस्यीय पीठ ने उस पैâसले को पलट कर ऐसा करनेवाले सांसदों-विधायकों को भ्रष्टाचार के दायरे में ला खड़ा किया है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय ऐतिहासिक है। इस पैâसले ने देश के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को आम श्रेणी में ला दिया है क्योंकि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है।
सांसदों, विधायकों को ढेर सारी सुविधाएं और व्यवस्थाएं पहले से उपलब्ध हैं। उनके लिए रहने, आने-जाने, दूरभाष करने व ढेर सारी सुविधाओं के साथ ही नियमित मानधन की व्यवस्था भी है। उन्हें जनहित के कार्यों, विकास के कार्यक्रमों और देश की प्रगति की योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए जनता सदन में भेजती है। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे जनता के हित में ईमानदारी और निष्ठापूर्वक अपनी भूमिका निभाएंगे। लेकिन अक्सर देखा जाता है कि चुनाव जीतने के बाद अनेक जनप्रतिनिधि अपनी मर्जी पर उतर आते हैं। वे अपनी विचारधाराओं को छोड़ देते हैं। जिन विचारधाराओं को लेकर मतदाताओं ने उनको मत दिए हैं, उससे वे विमुख हो जाते हैं। निजी लाभ के लालच में वे स्वार्थभरी भूमिकाएं निभाने लगते हैं। इसके साथ ही विधायकों और सांसदों के दल बदलने, अपनी मूल पार्टी छोड़ने, नई पार्टी बना लेने का चलन भी खूब बढ़ा है। खासकर भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद सांसदों-विधायकों को तोड़ने के कारनामें बढ़ गए हैं। ऐसे में चुनी हुई पार्टियों के सहारे बनी हुई सत्ता को गिराकर दूसरे दल बनाकर या किसी अन्य दल में शामिल होकर नई पार्टियों को सत्ता में लाने की भूमिकाएं बढ़ी हैं। महाराष्ट्र में ऐसे ही विधायकों पर खोके लेने के आरोप भी लगे थे। दरअसल, दलबदल कानून के प्रावधानों के तहत ये विधायक अपनी पार्टियों से अलग हो जाते हैं। इस संबंध में ठोस कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। नियम ऐसे हों जिससे जनप्रतिनिधि जिस दल से चुनकर आते हैं, यदि उसमें नहीं रहना चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें अपने विधायक या सांसद या चुने हुए जनप्रतिनिधि के पद से इस्तीफा देना चाहिए, ताकि वहां फिर से चुनाव घोषित हों। यदि पद पर बने रहकर अपनी मूल पार्टी छोड़ते हैं तो उनका पद स्वयं नष्ट हो जाना चाहिए। ऐसा कानून बनना चाहिए, ताकि जनता ठगी सी महसूस न करे। उम्मीद है कि हमारी अदालतें इस संबंध में भी ठोस निर्णय लेंगी। सांसदों-विधायकों के पैसे लेकर वोट देने के मामले में ताजा पैâसले ने भ्रष्टाचार के ताबूत में कील ठोका है। यदि दल बदलने के लिए सचमुच खोकेबाजी होती है तो उसके ताबूत में भी कानूनी कील ठोकनी होगी।
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)