झुर्रियों में छुपी हैं कई अधूरी कहानियां,
संघर्ष और त्याग की कई निशानियां।
कल तक जो पले लाडले जिन सायों में
वही बुजुर्ग आज लगते हैं बोझ हर दम?
जो कल तक थे शान और मिसाल,
आज बना हैं बोझ, कैसा ये विधान?
क्या दोष है उस स्नेहभरी परवरिश का?
या कसूर है आज की खुदगर्ज सोच का?
जिन नन्हें जिस्मों को कभी देखा था नंगा,
सर्द हवाओं में कांपते, धूप में जलते तन को।
जिनके लिए बने थे बुजुर्ग दीवार और छाया,
आज वही उड़ाते हैं हंसी, उनके लिबास पर।
सींचा था बचपन खुद की सहूलियत में कटौती कर,
नींदें बेच दीं जिसने बच्चों की खातिर।
आज वही आंखें देखती हैं तिरस्कार से,
जैसे बड़ों के त्यागों की कोई कीमत ही नहीं।
क्या ये समय की मार है या इंसान की भूल?
दिल में उठते हैं सवाल और आंखों में धूल।
पर क्या कहें, यही शायद जीवन की रीत है,
जहां अपनापन भी बस दिखावे की प्रीत है।
जिस पिता ने कल तक कंधों पर बिठाया,
हर मेले की रौनक दिखा, हर ख्वाब सजाया।
जिनकी मुस्कान से रौशन था हर आंगन,
आज वही चेहरा बना उलझनों का बंधन।
जिनके हाथों ने तुम्हें चलना सिखाया था,
जो हर डर से पहले खुद टकराया था।
आज उनके कांपते कदम करते हैं सवाल,
क्या इस घर में है भी उसकी कोई औकात?
बुढ़ापा सजा कोई नहीं, बस एक पड़ाव है,
हर सांस में छुपा जीवन का सौम्य बहाव है।
हर किसी को पहुंचना है इस मोड़ तक,
फिर क्यों इस सच को भूल जाए जमाना।
जिन्होंने हर सांस में बच्चों को जिया,
हर रात अपने बच्चों की खातिर जगा,
आज वही सांसें गिनते हैं चुपचाप,
एकांत की गोद में खोए हर पल गुमनाम।
-मुनीष भाटिया
मोहाली