मुख्यपृष्ठस्तंभबेबाकबेबाक : पोस्टल बैलेट जीते तो ईवीएम कैसे हार गए?

बेबाक : पोस्टल बैलेट जीते तो ईवीएम कैसे हार गए?

अनिल तिवारी
मुंबई

महाराष्ट्र में चुनाव परिणाम आए हुए तीन दिनों का समय बीत चुका है पर इस बीच सबसे बड़ी शंका व्यक्त की जा रही है तो ईवीएम मशीनों पर। पहले लोकसभा की कुछ सीटों पर, फिर हरियाणा विधानसभा के नतीजों पर और अब महाराष्ट्र की ‘महा’विजय पर इसके दुष्परिणामों का दावा हो रहा है। धुआं है तो आग निश्चित ही होगी। इस आग के धुएं से अब राष्ट्र और महाराष्ट्र का दम घुटने लगा है। आने वाले वक्त में तस्वीर और भयावह होगी, यह तय है।
इस वर्ष जून में किसी हवाले से एक रिपोर्ट आई थी कि लोकसभा की ७९ सीटों पर ईवीएम का गलत असर पड़ा है, परिणामों को प्रभावित किया गया है। इस रिपोर्ट पर लोगों को भरोसा इसलिए भी हुआ क्योंकि इतिहास में पहली बार चुनाव आयोग ने कुछ दिनों के बाद मतदान के प्रतिशत में अचानक से भारी इजाफा कर दिया था। ये बढ़े हुए वोट एकदम से, कहां से आ गए और इन्होंने किस पर विपरीत असर डाला, यह अभी भी सिस्टम के ‘गर्भ’ में ही दफन है। तब भी इतना तो तय है कि यह कारस्तानी सिस्टम के रखवालों और उनके आकाओं की ही होगी, तो निश्चित तौर पर लाभ भी उन्हें ही हुआ होगा! यहां महाराष्ट्र में भी रातों-रात ५-६ प्रतिशत का मतदान बढ़ गया? वैâसे? इस पर किसी ने गौर ही नहीं किया। गौर किया तो केवल ईवीएम की छोटी-मोटी गड़बड़ियों पर। खैर, इसके अलावा किसी के पास कोई पर्याय भी कहां है? जब किसान, जवान और पहलवान वाले हरियाणा में ‘चमत्कार’ हो सकता है, अपने तिरस्कार से खफा किसानों, वन रेंक-वन पेंशन और अग्निवीर जैसी योजनाओं से ठगे जवानों और शोषण व बदसलूकी से टूटे ‘पहलवानों’ वाला राज्य, झोली भर-भरकर सत्ता वापसी के वोट उगल सकता है तो भला छोटी-मोटी सूचनाओं की कहीं क्या बिसात ही रह जाती है?
पिछले दो दिनों में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव को लेकर बहुत सी सनसनीखेज सूचनाएं आर्इं। उन सूचनाओं में एक सूचना यह भी है कि जब महाविकास आघाड़ी के तमाम उम्मीदवार पोस्टल बैलेट में जीत रहे थे तो अचानक ईवीएम में कैसे हार गए? मामला गंभीर है। लिहाजा, ऐसी सूचनाओं और तथ्यों पर चिंतन और मनन भी आवश्यक है। चुनाव आयोग, सरकार और कानून के रखवाले इस पर लक्ष्य दें, न दें, आम जनता को तो विचार करना ही चाहिए। खासकर, तब जब मामला देश के भविष्य का हो। लोकतंत्र के अस्तित्व का हो।
महाराष्ट्र की ‘महा’विजय
शक तो तभी हो गया था जब हरियाणा के साथ महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव नहीं कराए गए। जो पार्टी एक देश, एक चुनाव की प्रबल हिमायती है वह विधानसभा के साथ होनेवाले चुनावों तक को अलग कर देती है, तब शक यकीन में भी बदल जाता है। ऐसे में क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि हरियाणा में इस्तेमाल हुर्इं मशीनों को महाराष्ट्र में दोबारा इस्तेमाल करने की मंशा से ऐसा नहीं किया गया होगा? अन्यथा पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने में सक्षम चुनाव आयोग तीन-चार राज्यों में एक साथ चुनाव कराने में वैâसे असमर्थ हो जाता है? वो भी तब जब इन राज्यों का चुनाव पहले से एक साथ होते आ रहा हो। अर्थात लोक लुभावन योजनाएं, लाड़ले षड्यंत्र और अन्य सब मुद्दे तो हैं ही पर जमीनी स्तर पर मशीनों के मैनेजमेंट से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
हर जगह हरियाणा पैटर्न
आपको ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि अब हर जगह भाजपा ‘हरियाणा’ पैटर्न का इस्तेमाल करे तो। ये पैटर्न क्या है वो तो आप समझते ही होंगे। वास्तव में, नई भाजपा बखूबी जानती है कि चुनाव जीतने के लिए केवल एक ही प्रयोग पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। चुनाव दर चुनाव उसके नए-नए प्रयोग इसकी पुष्टि भी करते हैं। कूटनीति के कुत्सित प्रयोगों का प्रकटीकरण करते हैं। चुनावी चौसर पर केवल रेवड़ियों की पराकाष्ठा और ध्रुवीकरण के धुएं के अलावा मतदाताओं की आंखों में धूल झोंकने के लिए उन्हें हरियाणा जैसा ‘पैटर्न’ भी तैयार करना पड़ता है। उसके शीर्ष सत्ताधारियों को जनता में जुबानी जहर भी घोलना पड़ता है।
तिलांजलि और पुष्पांजलि
पिछले दस वर्षों में देश में विकास का मुद्दा कहीं गूढ़ हो गया है। नए सत्ताधारी विकास को तिलांजलि देकर तुष्टिकरण को पुष्पांजलि दे रहे हैं। जिसका सबसे बड़ा खामियाजा आनेवाली पीढ़ियों के हिस्से होगा। देश में कट्टरवाद कम होने की बजाय और बढ़ेगा। आज हालात भी यही हैं कि हर व्यक्ति के मन में शंका, भय और एक-दूसरे के प्रति अविश्वास है। समाज में जहर है। भक्तों की भीड़ में भविष्य गुम हो रहा है। तर्कों और कुतर्कों में क्लेश हो रहा है। सत्ता के शीर्ष से संयम और भाईचारे के संदेशों की बजाय ‘जहर’ और ‘जंग’ के शब्दबाण फूट रहे हैं। ऐसे में भविष्य सबके लिए लाभप्रद होगा, यह कल्पना ही कैसे की जा सकती है?
किसका भला हुआ?
इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर एंटी सोशल आईटी सेल तक, रोज लगातार यह दावे हो रहे हैं कि गत दस वर्षों में देश का बहुत भला हुआ है। विशेष रूप से हिंदुत्व का। क्या भला हुआ? हिंदुत्व की छोड़ो, सामाजिक दृष्टिकोण से ही आकलन कर लो, तो क्या बेहतर हुआ? मस्जिदों के भोंगों से लोगों को राहत दिलवा दी क्या? या कट्टरवाद की घुट्टी पिलानेवाले मदरसों का स्वरूप बदल दिया है या उन्हें बंद करवा दिया है? नहीं न? तब क्या बेहतर हुआ है? जिस मुसलमान के नाम पर डरा-डराकर आप वोट बटोरते रहे, उस मुसलमान को सामाजिक समरसता में बांधने के लिए आपने क्या किया? उसे शिक्षित बनाने के लिए आपने क्या किया? क्या केवल उससे ईष्या इस मर्ज की दवा है? अब तो वे हिंदुस्थान के नागरिक हैं ही, उसे बदला तो नहीं जा सकता। भले ही वे आपको पसंद हों या नापसंद!
किसी का समूल नाश संभव नहीं
समाज होगा तो उसमें अच्छाई और बुराई दोनों होंगी। मुस्लिम समाज में सुधार भी अपेक्षित है। इसका यह अर्थ नहीं कि सभी को खत्म कर दिया जाए? सत्ता का काम समाज की बुराई खत्म करना होता है समूल समाज नहीं। कोई भी सत्ता प्रमुख किसी पंथ, किसी कौम या किसी वर्ग को मिटा नहीं सकता, मिटा सकता है तो केवल उसकी बुराइयां, कुरीतियां और कट्टरवाद। यदि कौमें खत्म हो सकतीं तो एडॉल्फ हिटलर ने यहूदियों को कभी का खत्म कर दिया होता। सद्दाम हुसैन ने कुर्दों को मिटा दिया होता, पर ऐसा नहीं हुआ। जब गैस चेंबर्स और केमिकल सेल तक इस काम में सफल नहीं हो सके तो क्या केवल कटुता बढ़ाने से ऐसा हो जाएगा? बिल्कुल नहीं होगा। ऐसे तो समाज में कट्टरता और बढ़ेगी, जहर बढ़ेगा। जो न तो सनातन धर्म के नाते लाभप्रद है, न ही हिंदुत्व की जीवन शैली के नाते न्यायसंगत।
सत्ता की भूख
पर सच्चाई यही है कि आज सियासतदारों में सत्ता की भूख इस कदर हावी है कि वो उसे पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं। चुनाव दर चुनाव लोभी मनोवृत्ति बढ़ा रहे हैं। एक नई परिपाटी को अमल में ला रहे हैं। असभ्य आचरण को परंपरा बना रहे हैं, जो निश्चित तौर पर आनेवाले समय में देश के लिए घातक होंगी, लोकतंत्र के लिए आत्मघाती होंगी। आपको इस पर विचार करना होगा। गहराई से, गहन चिंतन करना होगा। क्योंकि यह आपकी, हमारी या भविष्य की जरूरत ही नहीं है, बल्कि ये देश के वजूद की आवश्यकता भी है। इसे मिटने नहीं दिया जा सकता।

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