अनिल तिवारी
मुंबई
अगस्त १९४७ में हिंदुस्थान का दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन हुआ था। धर्म के नाम पर पाकिस्तान का गठन हुआ था। आज उस दुर्देवी घटना को ७५ वर्षों से अधिक का समय बीत गया। इन ७५ वर्षों में दोनों ही देशों ने अपने-अपने तरीके से लोकतंत्र चलाया। जिसके नतीजे में आज हम तो आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। वहीं पाकिस्तान की सड़कों पर जनता विद्रोह के लिए उतर रही है। वो अराजक राष्ट्र बन गया है।
उसके किसी हुक्मरान ने अपना कोई भी कार्यकाल पूरा नहीं किया है, जबकि हिंदुस्थान में कई नेताओं ने लगातार दशकों तक देश का नेतृत्व किया है। ऐसा इसीलिए संभव हो सका, क्योंकि हिंदुस्थान में आजादी से आज तक लोकतंत्र की रक्षा का संकल्प जारी रहा। जबकि पाकिस्तान में स्वार्थ की सियासत परवान चढ़ती रही। नतीजे में आज पाकिस्तानी आवाम का सब्र टूट रहा है, वह बेवजह जेल में बंद अपने नेता की रिहाई चाहती है, जजों की नियुक्ति का अधिकार सियासतदारों के हाथों जाने से बचाना चाहती है। कुल मिलाकर वो उन सभी स्वार्थ के विरोध में उतरी है, जो उसके लोकतंत्र को फलने-फूलने नहीं दे रहे, उनके लिए कांटों की डगर बन चुके हैं और हम आज शांति का मार्ग छोड़कर पाकिस्तान के पदचिह्न पर चलने को तत्पर हैं। स्वार्थ, दमन और डर के ‘पाकिस्तानी पैटर्न’ वाली राजनीति को एडोप्ट कर रहे हैं। राष्ट्र और महाराष्ट्र के हालिया चुनावी पैटर्न और षड्यंत्र की राजनीति इसी की गवाही देती है।
इसी वर्ष जून में लोकसभा के नतीजे घोषित हुए थे। सात चरणों में मतदान हुआ। इस दौरान सत्ता के शीर्ष से जिस तरह सरेआम ध्रुवीकरण और भ्रम का जाल फैलाया गया, ऐसा हिंदुस्थान के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। इसके बाद भी जब सियासी हालात हक में ‘नजर नहीं’ आए। कई रिपोर्टों में ऐसे दावे हुए कि जब ऐन केन प्रकारेण नेतृत्व खुद के दम पर सरकार नहीं बनते नजर आए तो मतदान को प्रत्यक्ष प्रभावित किया गया। काम बन गया साथ में चुनावों से उन्हें जीत की कई कुंजियां मिल गर्इं, जिनका इस्तेमाल उन्होंने हरियाणा चुनावों में किया और लगभग हार चुके चुनाव को भारी बहुमत से जीत भी लिया। जन-मन, जमीनी हकीकत, चुनावी आकलन और हवा का रुख धरा का धरा रह गया। किसान, जवान और पहलवान का विद्रोह काफूर हो गया और एक ऐसे राज्य में जहां हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन का चलन हो, वहां लगातार तीसरी बार सरकार का गठन हो गया।
निश्चित तौर पर अपनी पितृ संस्था के विरोध को काबू करने के लिए यह आवश्यकता भी था। लिहाजा वैसा ही हुआ। लोकसभा चुनाव जीतने से कहीं ज्यादा जरूरी हरियाणा विधानसभा का चुनाव था, इसलिए वो जीता गया पर इस पैटर्न से देश हार गया। हरियाणा पैटर्न का दंश महाराष्ट्र को भी लगा। उस पर दुर्भाग्य यह कि उसे एमपी के ‘लाडले’ पैटर्न ने भी छल दिया। एमपी और हारियाणा पैटर्न के फ्यूजन से बने नए पैटर्न ने बुरी तरह ठग लिया। मसला केवल एक महाराष्ट्र का होता तब भी उसे सहन किया जा सकता था पर जिस तरह से मौजूदा सियासत की क्रोनोलॉजी नजर आ रही है, महाराष्ट्र का यह नया पैटर्न आने वाले वक्त में देश के लिए खतरा बनता नजर आ रहा है। यदि इसे इसी तरह देश के अन्य राज्यों और फिर आम चुनावों में लागू किया गया, जैसा कि निश्चित ही किया जाना है तो मान लिजिए कि अब हिंदुस्थान के लोकतंत्र की कमर टूटना तय है। हालात पाकिस्तान से भी बदतर होने तय हैं। यहां के विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंसना या देश से भागने को मजबूर होना भी शायद तय हो जाए। जिस तरह वहां सेना की शह पर केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग होता है, यहां सियासती नेतृत्व के दबाव में वही हो रहा है। धीरे-धीरे इस प्रयोग में तेजी आ रही है। विपक्षी नेताओं को जेलों में सड़ाया जा रहा है, इतना कि अब तो अदालतों को भी इस पर आपत्ति होने लगी है। जमानत के विरोध पर शंका होने लगी है।
जनता को भी यह शंका होती है जब कथित भ्रष्ट नेता शरणागत हो जाता है। गठबंधन में आ जाता है तो तुरंत ‘पाप मुक्त’ कैसे हो जाता है? यह लोकतंत्र के लिए घातक है। झूठ, फरेब और भ्रम का माया जाल विषैला है। विकास नहीं विनाश की राजनीति है। पार्टियों को तोड़ना, उनमें आपसी मनमुटाव कराना, बगावत कराना। बागियों को सियासती षड्यंत्रों से पार्टियों की कमान सौंप देना, भावनात्मक चालें चलना, ध्रुवीकरण बढ़ाना, असल मुद्दों और कट्टरवाद की मूल जड़ों को चुनावी लाभ के लिए फलने-फूलने देना, उनका डर दिखाना, पदों की गरिमा तार-तार करना, भ्रष्टाचारियों, व्यभिचारियों को संवैधानिक शक्तियां देना, सियासी जहर फैलानेवालों को प्रमोट करना, उनसे हाथ मिलाना, इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे महापाप करना, जीएसटी की लूट मचाना, लोकतंत्र के स्तंभों को लाचार करना, प्रभावित करना, लोकलाज और नैतिकता को तिलांजलि देना, हर कार्य राजनैतिक लाभ या कॉर्पोरेट मुनाफे के लिए करना, जनहित और जनकल्याण का दिखावा करना, चुनावों से पहले रेवड़ियां और चुनाव बाद लूट का चक्र चलाना, विकास कार्यों को प्रभावित करना, नोटबंदी जैसे ब्लंडर करना, बिना विचारे फैसले लेना, खुद का व्यक्तिगत लाभ देखना, विदेशों में खिलखिलाना, अपने देश में आंखें दिखाना, सदन में भ्रम फैलाना, मुद्दों से भटकनाना, एजेंडा सेट करना, चुनाव परिणाम प्रभावित करने के लिए अनैतिक तरीके अपनाना, भ्रमित या विचलित करनेवाली फिल्मों का ऐन चुनावी मौसम में प्रसारण होना, मतदान के वक्त धार्मिक गतिविधियों का, दर्शन-ध्यान का आडंबर करना, लोभ-लालच और लाचारी की राजनीति करना, जनता को मृगजाल में फंसाकर उस पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष काबू करना, उसको मानसिक गुलाम बनाना, कॉर्पोरेट घरानों के हवाले देश की संपत्ति और संसाधन करना, पूरी सरकारी मशीनरी का आए दिन चुनावी उपयोग करना, सभी संवैधानिक सदस्यों का सालभर चुनावी मोड में रहना वगैरह-वगैरह। फेहरिस्त बहुत लंबी है। बस इतना समझ लीजिए कि यह हिंदुस्थान के लोकतंत्र को दिन-ब-दिन खोखला कर रही है। रोज लाए जानेवाले नए-नए पैटर्न के जरिए कमजोर कर रही है। लोकतंत्र को तबाह कर रही है। इस पर गंभीरता से विचार करना होगा। सियासतदार करें, न करें, कम से कम जनता को तो करना ही होगा, वर्ना हमें भी पाकिस्तान जैसा अराजक राष्ट्र बनते समय नहीं लगेगा!