सामना संवाददाता / पाली-मारवाड़
राजस्थान सरकार ने पंचायती राज अधिनियम, 1994 की धारा-101 के तहत पंचायतों के पुनर्गठन, पुनर्सीमांकन और नवसर्जन का आदेश जारी किया है। इसी क्रम में बागोल ग्राम पंचायत और इसके तीन गांवों को खिंवाड़ा पंचायत समिति में शामिल करने का प्रस्ताव सामने आया है, लेकिन इस फैसले ने बागोल के ग्रामीणों के मन में कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या बागोल ग्राम पंचायत ने खुद को देसूरी पंचायत समिति से अलग करने का कोई प्रस्ताव दिया था? अगर नहीं, तो यह प्रस्ताव आखिर आया कहां से?
ग्रामीणों का दूसरा सवाल यह है कि क्या इस फैसले के लिए बागोल पंचायत से राय-मशविरा किया गया? पंचायत पुनर्गठन कोई छोटी प्रक्रिया नहीं होती, यह सीधे जनता की भागीदारी और प्रशासनिक सुगमता से जुड़ा विषय है। अगर यह प्रस्ताव ग्राम पंचायत से नहीं आया, तो फिर यह बदलाव किस जनप्रतिनिधि की सिफारिश पर किया गया? क्या मारवाड़ विधायक केसाराम चौधरी ने यह प्रस्ताव रखा? अगर हां, तो क्या उन्होंने पहले बागोल ग्राम पंचायत से इस बारे में चर्चा की थी? क्या पंचायत के रिकॉर्ड में ऐसा कोई पत्र मौजूद है, जिससे यह साबित हो कि ग्रामीणों की सहमति ली गई थी?
यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि बागोल और उसके तीन गांव मारवाड़ विधानसभा क्षेत्र में आते हैं, लेकिन तहसील कार्यालय देसूरी में स्थित है। अब सवाल उठता है कि अगर तहसील के कामों के लिए ग्रामीणों को देसूरी जाना पड़े और पंचायत समिति का नेतृत्व खिंवाड़ा में चला जाए, तो प्रशासनिक कार्यों के लिए कौन जवाबदेह होगा? ग्रामीणों की शिकायतों का निवारण कौन करेगा? क्या इस फैसले से सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में देरी नहीं होगी? क्या इससे भ्रष्टाचार और प्रशासनिक जटिलताओं को बढ़ावा नहीं मिलेगा?
सरकार ने आदेश तो जारी कर दिया, लेकिन ग्रामीणों को यह भी जानने का हक है कि किस आधार पर यह निर्णय लिया गया? अगर पंचायतों के पुनर्गठन में पारदर्शिता नहीं होगी, तो फिर ग्रामीण जनता से क्या उम्मीद की जाए? क्या बागोल ग्राम पंचायत और वहां के लोगों को सिर्फ एक प्रशासनिक आदेश के जरिए इधर से उधर कर देना उचित है? लोकतंत्र में क्या जनता की सहमति के बिना इस तरह के फैसले लिए जाने चाहिए? इन सवालों के जवाब कौन देगा-सरकार, विधायक या प्रशासन?