होता है लगभग २० हजार करोड़ का नुकसान!
अशोक तिवारी
भारत के किसी भी पुलिस स्टेशन में जाएंगे तो वहां कई गाड़ियां सड़ती हुई आपको दिख जाएंगी। एक अनुमान के मुताबिक, भारत को हर साल इससे लगभग २०,००० करोड़ रुपए का नुकसान होता है। बता दें कि ब्रिटिश पार्लियामेंट ने १८७२ में ब्रिटिश एविडेंस एक्ट १८७२ पारित किया था। इसके अनुसार अपराधी के पास बरामद सारी चीजें एविडेंस के तौर पर पेश की जाएंगी। उन्हें सुरक्षित रखा जाएगा और अदालत में पेश किया जाएगा। १८७२ में साइकिल का भी आविष्कार नहीं हुआ था। फिर जब यही कानून ब्रिटिश सरकार ने भारत पर लागू कर दिया तो यह भारतीय एविडेंस एक्ट १८७२ बन गया। यानी कि कोई अपराधी यदि पकड़ा जाता है तो वो जिस गाड़ी में होगा, उस गाड़ी को भी एविडेंस बना लिया जाता है। किसी गाड़ी में अपराध हुआ है तो उसे भी एविडेंस एक्ट के तहत जप्त कर लिया जाता है या फिर दो गाड़ियों का एक्सीडेंट हुआ है, तब दोनों गाड़ियों को एविडेंस एक्ट में जप्त कर लिया जाता है।
लेकिन आश्चर्य यह है कि सरकारी वाहनों को इनसे मुक्त क्यों रखा गया है? अगर ट्रेन में अपराध होता है तो आज तक नहीं देखा गया कि पुलिस ने पूरी ट्रेन को जप्त कर के थाने में खड़ी की हो या किसी सरकारी बस में कोई अपराध हुआ हो या सरकारी बस में कोई मुजरिम पकड़ा गया हो तो पुलिस ने एविडेंस एक्ट के तहत सरकारी बस को उठाकर थाने में रखा हो?
जितने भी वाहन पकड़े जाते हैं, वो जब तक केस का फाइनल पैâसला नहीं आ जाता तब तक थाने में पड़े रहते हैं। गर्मी, बारिश सब झेलते हैं। और आपको तो पता ही है कि भारत में ५० से ६० साल मुकदमे की सुनवाई में लग जाते हैं। तब तक यह वाहन पूरी तरह से सड़ जाते हैं। जब केस का निपटारा होता है, तब ये वाहन कबाड़ तो छोड़िए, सड़कर ‘खाद’ बन चुके होते हैं। ब्रिटिश जमाने से चले आ रहे बहुत से कानूनों में बदलाव किए जाने की जनता लंबे समय से मांग कर रही है, लेकिन अब इंडियन एविडेंस एक्ट १८७२ में भी बदलाव करने की जरूरत है।
सोचिए कि एक वाहन बनाने में कितने घंटे की मजदूरी, कितनी पावर, कितना कच्चा माल लगा होगा और वह सब कुछ सड़ जाता है, किसी के काम नहीं आता। अधिकांश लोगों का मानना है कि वाहनों को भी आरोपी की तरह जमानत पर छोड़ दिया जाना चाहिए, ताकि आम जनता के अलावा देश के पैसों के हो रहे नुकसान को रोका जा सके। हजारों करोड़ की गाड़ियां प्रतिवर्ष सड़ती हैं, जिसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर भी होता है। अगर गाड़ियों को रिहा करने की कोई तरकीब निकाल ली जाती है तो इससे देश के हो रहे एक बड़े आर्थिक नुकसान से बचाया जा सकता है। क्योंकि अंग्रेजों ने जब कानून बनाया था तो उन्हें भारत में किसी भी हाल में सत्ता हासिल करना था। उन्हें देश से कोई प्रेम नहीं था लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है इसलिए देश में इस मुद्दे पर गौर करना चाहिए।
गुलामी की मानसिकता को
दर्शाता है यह कानून
प्रधानमंत्री ने कहा था कि अंग्रेजों के बनाए गए बहुत सारे कानून को वे खत्म करने जा रहे हैं। कुछ कानून को खत्म भी किया जा चुका है लेकिन आश्चर्य की बात है कि एविडेंस एक्ट की इस धारा पर अभी तक सरकार का ध्यान नहीं गया है। ऐसे कानून अंग्रेजों द्वारा देश को वर्षों तक गुलाम बनाए रखने की नीयत से बनाए गए थे। अब जब अंग्रेज चले गए हैं और देश में अपनी जनता की सरकार है तो ऐसे कानून की समीक्षा की जानी चाहिए और कानून द्वारा हो रहे नफा और नुकसान के बारे में विचार सरकार को अवश्य करना चाहिए। मेरा मानना है कि जो कानून गुलामी की मानसिकता आज भी देश की जनता के जेहन में डालते हैं, उन्हें तत्काल बदलने की जरूरत है।
– मुकेश रामजी पंचोली, पवई
सीआरपीसी ४५७ के तहत गाड़ी छोड़ने का है प्रावधान
भारतीय दंड संहिता की धारा ४५७ के तहत जिन मामलों में चार्जशीट अदालत में दाखिल कर दी जाती है, उन मामलों का इन्वेस्टिगेशन पूर्ण समझा जाता है। जांच पूरी होने के बाद गाड़ी मालिक से बॉन्ड भरवाया जाता है कि वह गाड़ी को बेच नहीं सकता है, जिसके बाद अदालत को गाड़ी छोड़ने का पूरा अधिकार है। कुछ मामलों में चार्जशीट न्यायालय में दाखिल करने में बहुत वर्ष लग जाते हैं। बहुत से मामलों में दूसरे आरोपी गिरफ्तार नहीं हो पाते हैं। ऐसे में जब तक सभी आरोपी नहीं गिरफ्तार किए जाते, तब तक चार्जशीट भी नहीं दायर की जाती है। इसकी वजह से वाहनों को छोड़ने में काफी विलंब हो जाता है। तब तक कितने ही वाहनों की आयु भी खत्म हो जाती है। बहरहाल, सरकार को बीच की कुछ तरकीब निकालने पर ध्यान देना चाहिए।
-एड. जितेंद्र तिवारी, मुंबई हाईकोर्ट
जप्त करने की यह प्रक्रिया सरकारी
वाहनों पर क्यों नहीं लागू की जाती?
प्राय: यह देखा गया है कि कोई भी वारदात या दुर्घटना होने के बाद प्राइवेट वाहनों को तो तत्काल जप्त कर लिया जाता है, जबकि यही दुर्घटना या वारदात सरकारी वाहनों से हो तो पुलिस उसे नहीं जप्त करती है। यह देश की आम जनता के साथ दोहरा मापदंड है। पुलिस स्टेशन में जो वाहन खड़े किए जाते हैं, उनके पार्ट्स भी आश्चर्यजनक रूप से तेजी से गायब हो जाते हैं। किसी तरह वाहनचालक अपने वाहन को छुड़ा भी लेता है, तो उसे वाहन को दोबारा चलने के लायक बनाने के लिए वाहन के करीब ही पूरा पैसा खर्च करना पड़ता है। बरसों तक गाड़ी को जप्त कर उन्हें सड़ा डालने वाले कानून को तत्काल खत्म करने की जरूरत है, ताकि देश के लोगों को लगे कि यह इस देश में जनता की सरकार है जो जनहित के मुद्दों को प्राथमिकता देती है। ऐसे दोहरे मापदंड संविधान के कानून की समानता के अनुच्छेद का भी उल्लंघन है।
-संतोष त्रिपाठी, समाज सेवक
गाड़ियों के लिए १५ वर्ष तक का
रोड टैक्स भरने वालों के साथ अन्याय है यह कानून
भारत में गाड़ियों की आयु सरकार द्वारा १५ वर्ष तक निर्धारित की गई है। इसके अलावा एक बड़ा अमाउंट भरकर ग्रीन टैक्स के नाम पर गाड़ियों की लाइफलाइन को पांच वर्षों के लिए और बढ़ाया जा सकता है। गाड़ियों को जप्त कर बरसों तक थाने में खड़ा रखना गाड़ी मालिक के साथ सरकारी तंत्र का अन्याय है। गाड़ी खरीदते समय गाड़ी का मालिक १५ वर्षों के लिए एकमुश्त रोड टैक्स सरकार को देता है, जबकि केस का निपटारा होने में २० साल से भी अधिक का समय लग जाता है। ऐसे में २० साल के बाद अगर गाड़ी के मालिक को गाड़ी दी भी जाती है तो उसे गाड़ी को भंगार में बेचने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं बचता। बरसों से देश की जनता के साथ चल रहे इस सरकारी अत्याचार को तत्काल बंद करने की जरूरत है।
– अतीक खान
राष्ट्रीय अध्यक्ष- वाहतूक टाइगर संघटना
बैंक लोन की किस्त क्यों?
गाड़ी थाने में जमा हो तो लोन की किस्त भरने पर भी होनी चाहिए रोक
यह बात बड़ी अजीब है कि किसी भी अपराध या दुर्घटना में शामिल गाड़ी को पुलिस थाने में बरसों खड़ा कर दिया जाता है, लेकिन बैंक द्वारा लोन की किस्त पर रोक नहीं लगाई जाती है। कितने ऐसे ही मामलों में होता है कि गाड़ी पुलिस स्टेशन में जप्त रहती है और बैंक वाले रिकवरी के लिए गाड़ी के मालिक को बार-बार परेशान करते हैं। आखिरकार अपराध व्यक्ति करता है, वाहन नहीं। व्यक्ति को रिहा करने का प्रावधान है तो वाहन को जप्त करके बरसों तक रखने का औचित्य ही क्या है? इस कानून को तत्काल बदलने की आवश्यकता तो है ही, इसके अलावा वाहन थाने में जमा करने के बाद लोन की किस्त को तत्काल रोकने की जरूरत है। सरकार को इस संदर्भ में तत्काल विचार कर उचित कार्रवाई करनी चाहिए।
-मनोज कुमार दुबे, समाज सेवक