जब हुआ था बेसहारा, चल पड़ा मैं हौसले पर,
अब कहते हो-
आवारगी है मेरी, कोई दाद नहीं हौसले पर।
उस मुकाम पर मैं लौटूं, अब मुमकिन ही नहीं,
वादा किया है खुद से-
जहां बेआबरू हुआ था, अब नहीं जाना वहीं।
कदमों को भटकने न दो,
हर निशां को ठोस बनाना सीखो,
हर राह पे अपने होने का
एक साफ-साफ निशां छोड़ आना सीखो।
बहते दरिया की गहराई न सही,
पर उसकी रफ़्तार का अंदाज होना चाहिए।
जो पार करना है मंजिलों को,
तो लहरों की चाल का भी हिसाब होना चाहिए।
कश्ती में छेद हो या न हो,
डूबने का इरादा नहीं होना चाहिए।
दरख्त से पूछा उदासी का सबब,
बोला-पत्थरों को फल देता हूं हर दफा।
तो फिर सोचो,
कुल्हाड़ी को तेज करने की जरूरत क्यों पड़ी भला?
अश्क जो गालों पर बहकर सूख गए,
अब ये जानना जरूरी है-
क्यों बहे थे, किसके लिए बहे थे,
इसका भी कुछ अंदाजा होना चाहिए।
इश्क के बदले इश्कम मिले न मिले,
मगर रुसवाई का असर समझना चाहिए।
-बेला विरदी