महात्मा जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित फिल्म ‘फुले’ को लेकर महाराष्ट्र में बेवजह विवाद शुरू हो गया है। ब्राह्मण संगठनों के लोगों ने धमकियां देनी शुरू कर दी हैं कि फिल्म में कई घटनाओं और प्रसंगों पर कैंची चलाई जाए, नहीं तो फिल्म रिलीज नहीं होने देंगे। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस इन ब्राह्मण संगठनों को आसानी से चुप करा सकते हैं। एक तो वे राज्य के मुख्यमंत्री हैं, व खुद एक ब्राह्मण हैं और महाराष्ट्र में ब्राह्मण समाज उनकी बातों से परे नहीं है। इसलिए फिल्म ‘फुले’ को लेकर जो हंगामा कर रहे हैं उन्हें शांत करना फडणवीस का ही काम है। फडणवीस आदि ने ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘ताशकंद फाइल्स’, हाल ही में ‘छावा’ पर टिप्पणी की और लोगों से इन फिल्मों को देखने का आग्रह किया। ‘छावा’ के बाद औरंगजेब की कब्र का विवाद कुछ उथले हिंदुत्ववादियों द्वारा उठाया गया। फडणवीस ने मामले को शांत करा दिया। तो वे महात्मा फुले पर बनी फिल्म के ‘विवाद’ को ठंडा करने की पहल क्यों नहीं कर रहे हैं? ‘छावा’ की तरह ही फडणवीस को भाजपा विधायकों और कार्यकर्ताओं के लिए फिल्म ‘फुले’ के एक विशेष ‘शो’ की व्यवस्था जरूर करनी चाहिए। जिस प्रकार महात्मा फुले की महानता को उनके जीवनकाल में बहुत से लोग नहीं समझ पाए थे, उसी तरह आज भी यह बात बहुत से लोगों के ध्यान में नहीं आ पाई है। जिस युग में फुले का जन्म हुआ, उस युग में उनके जैसा दूरदर्शी क्रांतिकारी कोई नहीं था। इसलिए उनके कार्य और विचार का महत्व केवल जस्टिस रानाडे को छोड़कर कोई समझ नहीं पाया। जोतिबा के जीवन के बारे में सोचते समय, सावित्रीबाई फुले के विचार को अलग या हटाया नहीं जा सकता। इसकी वजह यह है कि जोतिबा स्वयं एक अलग क्रांतिकारी सोच के साथ आगे बढ़े थे। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के लिए युद्ध का आह्वान किया। इस संघर्ष और जीवन में सावित्रीबाई उनकी साथी बनीं। जोतिबा की विशेषता यह है कि वे सामाजिक कार्यों में समाज के लोगों को लेकर अकेले काम नहीं करते थे। इन कार्यों की शुरुआत उन्होंने सावित्री बाई के साथ अपने घर से ही की। महाराष्ट्र में अनेक विचारक और समाज सुधारक हुए। तथापि
समाज के विचारों की संरचना
को बदलने वाली यह शायद पहली जोड़ी है। यदि जोतीराव को ‘युगपुरुष’ कहा जाता है, तो सावित्रीबाई को ‘युगस्त्री’ कहना होगा। फुले दंपति ने महिला शिक्षा की नींव रखी। तमाम तरह के विरोध का सामना करते हुए महात्मा फुले ने पुणे में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की। जिसके चलते महिला शिक्षा आंदोलन ने जोर पकड़ा। फुले द्वारा स्थापित इस पाठशाला का महत्व यह है कि यह केवल पिछड़े वर्ग की लड़कियों के लिए पाठशाला नहीं थी। इस पाठशाला में ब्राह्मण और बहुजन समाज की लड़कियां भी प्रवेश लेती थीं। उस पाठशाला में सावित्रीबाई स्वयं पढ़ाती थीं और जब वे उस पाठशाला में जाती थीं तो उन पर कीचड़, गोबर और कूड़ा-कचरा फेंका जाता था। सावित्रीबाई की एक महिलामित्र ने सलाह दी, ‘जोतिबा एक पुरुष हैं, उन्हें काम करने दीजिए। लेकिन आपको लड़कियों और अछूतों के लिए स्कूलों में काम करना बंद कर देना चाहिए।’ इस सलाह पर सावित्रीबाई का जवाब महिला शिक्षा आंदोलन में काम करने वालों के लिए मनोबल बढ़ाने वाला है। उन्होंने कहा, ‘जो लोग मेरे शरीर पर पत्थर, गोबर के गोले, घास-फूस, पानी फेंकते हैं, वे अज्ञानी हैं। वे इस कार्य का महत्व नहीं समझते हैं। उन्हें इस अज्ञान से मुक्ति मिले, इसके लिए मैं विद्यादान का कार्य करती हूं, ताकि उन्हें सत्य का ज्ञान हो सके।’ सावित्रीबाई ने इतनी भयानक यातना सहन की और उसे पर्दे पर दिखाया गया तो आप इस बात पर छाती क्यों पीट रहे हैं? फिल्म ‘छावा’ में छत्रपति संभाजी महाराज को प्रताड़ित करने वाले मुस्लिम थे, इसलिए फडणवीस और नरेंद्र मोदी ने कहा कि छावा जरूर देखें, लेकिन सावित्रीबाई को प्रताड़ित करने वाले अपने ही सनातनी हिंदू थे इसलिए उनका समर्थन किया जाए? यह न्याय नहीं है। फुले दंपति ने क्या कार्य किया? उन्होंने पुणे में पहली बालिका पाठशाला शुरू की। फुले भारत में अछूतों के लिए स्कूल खोलने वाले पहले समाज सुधारक थे। ब्राह्मण समाज की कई बाल विधवाएं, यदि अनजाने में गर्भवती हो जातीं तो आत्महत्या कर लेतीं या गर्भपात करा लेतीं। उन बाल विधवाओं के लिए फुले दंपति ने अपने ही घर में एक प्रसूति गृह तथा एक बाल हत्या निवारण गृह खोला। फुले दंपति ने ये समाज सुधार के कार्य सर्व समाज का विरोध झेलते हुए किए। जोतिबा ने कहा, ‘जब तक हम यह नहीं समझते कि सभी मानव एक ईश्वर की संतान हैं तब तक हम
ईश्वर के सच्चे स्वरूप
को नहीं समझ सकते।’ जोतिबा और सावित्रीबाई महान वक्ता और लेखक थे। उन्होंने कविताएं और पोवाडे लिखे। सौ साल पहले सावित्रीबाई ने अंधविश्वासों की कड़ी आलोचना की थी। ‘काव्यफुले’ ग्रंथ में वह कहती हैं-
‘धोंडे मुले देती, नवसा पावती
लग्न का करिती, नारी नर?’
फुले ब्राह्मण विरोधी नहीं थे और ब्राह्मण भी फुले के विरोधी नहीं थे। १ जनवरी, १८४८ को पुणे में बुधवार पेठ के भिडे वाडा में पहला बालिका विद्यालय शुरू किया। तात्यासाहेब भिडे एक ब्राह्मण गृहस्थ थे, लेकिन वे फुले के स्त्री शिक्षा कार्य से प्रभावित हुए और उन्होंने अपना भिडे वाडा फुले को सौंप दिया। फुले ने जातिगत भेदभाव को नहीं माना। महात्मा फुले ने अपना जीवन इसलिए बलिदान कर दिया ताकि हिंदू समाज में जातिगत भेदभाव और छुआछूत दूर हो, समाज सामाजिक समानता और न्याय पर आधारित हो और हर कोई सत्य का उपासक बने। फुले के कारण ही महाराष्ट्र प्रगतिशील बना। आचार्य अत्रे ने महात्मा फुले पर एक खूबसूरत मराठी फिल्म बनाई। उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार का रजत कमल प्राप्त हुआ। इसके बाद अब फिल्म ‘फुले’ हिंदी भाषा में आ रही है। कोई भी इसका विरोध करने का साहस न करे। प्रकाश आंबेडकर और उनके लोगों ने फिल्म ‘फुले’ के समर्थन में पुणे के फुले वाडा में विरोध प्रदर्शन किया। प्रकाश आंबेडकर कहते हैं, ‘समाज में अभी भी ऐसी ताकतें हैं जो सावित्रीबाई और महात्मा फुले के काम का विरोध करती हैं। कुछ वर्ग और समूह उनकी क्रांति और कार्य का विरोध करते हैं।’ प्रकाश आंबेडकर ने सही कहा। दुर्भाग्य की बात इतनी ही है कि ‘फुले’ के विचारों और उनके कार्यों का विरोध करने वाली ताकतों को छिपे तौर पर प्रकाश आंबेडकर का साथ है और यही कारण है कि फुले के विचारों और कार्यों का विरोध करने वालों को ताकत मिली है। इसलिए समाज में भ्रम की स्थिति है। महात्मा फुले, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का प्रगतिशील महाराष्ट्र प्रतिक्रियावादी ताकतों के चंगुल में है। इसी वजह से फिल्म ‘फुले’ का विरोध किया जा रहा है। महाराष्ट्र में ‘फुले-आंबेडकर बनाम फडणवीस’ जैसी है ये लड़ाई! इस सामाजिक मुद्दे पर मुख्यमंत्री फडणवीस चुप क्यों हैं? उन्हें मौन तोड़ना होगा। वरना इस बात पर मुहर लग जाएगी कि यह लड़ाई ‘फुले बनाम फडणवीस’ है!