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सियासतनामा : दिल नहीं मिल रहे

सैयद सलमान मुंबई

बड़े नेताओं को तो भाजपा वरगलाकर अपने पाले में कर लेती है, लेकिन मामला जब जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं का आता है तो स्थिति कुछ अलग हो जाती है। अब उत्तर प्रदेश के बागपत का ही मामला लें, जहां ताजा-ताजा बने गठबंधन सहयोगी भाजपा और आरएलडी के कार्यकर्ताओं के बीच जमकर मारपीट हुई। दोनों पक्षों में एक-दूसरे पर जमकर लात-घूंसे चले। आरएलडी कार्यकर्ताओं ने भाजपा कार्यकर्ताओं को गिरा-गिरा कर पीटा। घटना का वीडियो भी तेजी से वायरल हुआ। बात बस इतनी सी थी कि एक गांव में रालोद गठबंधन प्रत्याशी को भाजपा नेता अपने घर ले जाने लगे तो रालोद कार्यकर्ताओं को यह नागवार गुजरा और मामला मार-पीट तक पहुंच गया। दरअसल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आरएलडी की मजबूत जमीन को देखते हुए ही सपा के साथ गठबंधन कर विपक्ष में बैठी आरएलडी को जुमलों और वादों के जाल में फांसकर भाजपा ने अपने साथ तो कर लिया है, लेकिन दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के दिल मिल नहीं पा रहे हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं को केंद्र का नशा है, जबकि आरएलडी को अपने क्षेत्र का। इस नशे में कहीं लुटिया डूब न जाए।
३५ वर्ष का ठीकरा
भाजपा में भी अजीब-अजीब नमूने पाए जाते हैं। उत्तर प्रदेश के एक राज्य मंत्री हैं संजय गंगवार, उन्हें भाजपा के टिकट से वंचित और अपनी ही पार्टी के सांसद वरुण गांधी का धुर विरोधी माना जाता है। यह तो सभी जानते हैं कि पीलीभीत से लगातार ३५ वर्ष तक मेनका गांधी और वरुण गांधी अदल-बदल कर सीट जीतते रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पिछले ३५ साल से पीलीभीत पर मेनका या वरुण का ही राज रहा है। अब जब वरुण का टिकट कटा तो संजय गंगवार इसे ३५ वर्ष बाद मिली आजादी बता रहे हैं। गंगवार कहते हैं कि ३५ साल बाद पीलीभीत के लोगों को अपमान से मुक्ति मिली है। उनका कहना है पिछले ३५ वर्षों से जिले की जनता पूर्व सांसदों को वोट देकर जिताती रही, लेकिन विकास के नाम पर जिला शून्य ही रहा। अगर इसे राजनीतिक नजरिए से देखा जाए तो क्या यह माना जाए कि पीलीभीत को भाजपा ने पिछले ३५ वर्षों से अपमानित कर रखा था? यह तो अपनी ही राज्य सरकार के एक राज्यमंत्री द्वारा वरुण के बहाने भाजपा आलाकमान की नीयत पर ही सवाल उठा दिया गया है।

तोल-मोल के बोल
काठ के घोड़े पर बैठी रील वाली रानी को `पॉर्न स्टार’ और `सॉफ्ट पॉर्न’ जैसे शब्द मर्यादित लगते हैं। उस पर तुर्रा यह कि वह अपने बयानों को खुद ही सही भी ठहरा देती हैं। यह अहंकार यूं ही नहीं आया। केंद्र की सत्ता में बैठे दबंगों की शह ने इस फ्लॉप आर्टिस्ट को विवादित बनाने में पूरी शह दी है। जिस महिला को १५ अगस्त १९४७ को लाखों शहीदों के खून के बदले और आंदोलनों की बदौलत मिली देश की आजादी भीख में मिली आजादी लगती हो उसकी बुद्धि पर तरस आता है। एक पार्टी और नेता की चमचई में मस्त और व्हॉट्सऐप यूनिवर्सिटी से ज्ञान अर्जित करने वाली इस विवादित अदाकारा के लिए आजादी २०१४ में मिली। इस तरह की अनेक चमचई के बदले लोकसभा का टिकट तो मिल गया, पर वहां के लोग इस शताब्दी की सबसे बड़ी आपदा में उनके न आने को मुद्दा बना रहे हैं। वहां करोड़ों रुपयों का जब नुकसान हुआ, तब यह अदाकारा न जाने कहां गायब थी। फलां जगह की बेटी कहकर रिश्ता जोड़ना आसान होता है, दुख में साथ खड़ा रहना अलग, इस बात को यह नकली रानी समझे, तब न तोल-मोल के बोले।
चिराग से अंधेरा
चिराग पासवान भी गजब के खिलाड़ी हैं। एक तरफ तो चाचा पशुपति नाथ पारस से आहत थे, लेकिन दूसरी तरफ वह खुद मोदी का हनुमान बताते फिरते रहे। अब जब भाजपा ने पशुपतिनाथ पारस को किनारे कर चिराग को गठबंधन में शामिल किया तो चिराग को जैसे पर लग गए। वह भी भाजपा की तर्ज पर मनमानी पर उतर आए। उनके हिस्से में आई पांच सीटों पर उनकी पार्टी एलजेपी के टिकट बंटवारे से यह साफ नजर आता है। एक टिकट तो उन्होंने अपने बहनोई को ही दिया है। वहीं दूसरी ओर चिराग पासवान ने दुख के साथी रहे अपनी पार्टी के लोगों पर भरोसा करने के बजाय बाहरी उम्मीदवारों पर दांव लगाया है। एक ऐसी सांसद को भी उन्होंने टिकट दिया है, जो उन्हें धोखा देकर उनके चाचा के गुट में शामिल हो गई थीं। उनके गद्दारों को टिकट न देने के सारे दावे धरे रह गए। शायद खुद को मोदी का हनुमान कहने वाले चिराग को यह आदेश उनके आराध्य को टोली ने दिया हो। जो भी हो चिराग रोशनी के बजाय अंधेरा पैâलाते ज्यादा नजर आ रहे हैं।

(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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