सैयद सलमान मुंबई
नीतीश कुमार की राजनीति बिहारी टोन में कहें तो `गजबय’ है। अब तो उन्हें बार-बार भाजपा को सफाई देने की जरूरत पड़ने लगी है। नीतीश कुमार ने एक बार फिर दोहराया है कि गलती से दो बार वे गलत लोगों के साथ चले गए। यह उनकी असमंजस भरी स्थिति और दोहरी मानसिकता का परिचायक है। एक तरफ, वे महागठबंधन का हिस्सा बनते हैं, दूसरी ओर, भाजपा के साथ फिर से गठबंधन कर लेते हैं। इस उलट-पुलट को उनकी राजनीतिक चतुराई तो कहा जा सकता है, लेकिन साथ ही यह भी सवाल उठता है कि क्या वे वास्तव में किसी सिद्धांत पर खड़े हैं या केवल सत्ता की भूख में इधर-उधर घूम रहे हैं। उनकी हर बार की सफाई से लगता है जैसे वे खुद को ही समझा रहे हैं कि `मैं इधर-उधर नहीं जाऊंगा’, जबकि वास्तविकता यह है कि उनका राजनीतिक अस्तित्व इसी जोड़-तोड़ पर निर्भर करता है। नीतीश के अधिकांश साथी दल नीतीश कुमार के नेतृत्व को तो अनमने भाव से ही सही, स्वीकार तो करते हैं, लेकिन उनके राजनीतिक पैâसलों पर नजर भी रखते हैं कि पलटू चाचा कहीं फिर न गच्चा दे जाएं।
दादा का खेला!
महाराष्ट्र की सियासत में अजीत पवार एक ऐसा नाम है, जो फिलहाल घर और बाहर दोनों मोर्चों पर लड़ रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में सुप्रिया सुले के खिलाफ अपनी पत्नी सुनेत्रा पवार को चुनाव लड़वाकर और बुरी तरह शिकस्त खाकर वह थोड़ा जमीन पर आए। उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की। अब विधानसभा चुनाव में उन्हें यह मलाल खाए जा रहा है कि शरद पवार ने अपने परिवार के ही युगेंद्र पवार को उनके सामने बारामती से उतार दिया है। यह चक्रव्यूह अभी रचा ही जा रहा था कि सबसे कम सीटें देकर महायुति ने उनके पर कतरने का काम किया। १४८ पर भाजपा, ८० पर शिंदे और मात्र ५३ सीटों पर अजीत पवार चुनाव लड़ रहे हैं। अजीत पवार खुद की छवि अलग दिखाने के लिए योगी के प्रचार को बाहरी और उनके नारे `बंटेंगे तो कटेंगे’ को गैरजरूरी बता चुके हैं। उनके अधिकांश प्रत्याशी चुनाव प्रचार में भाजपा और शिंदे गुट के नेताओं की न तस्वीर लगा रहे हैं, न उन्हें बुला रहे हैं। साथ रहकर भी अलग चलने की इस कवायद के सियासी मायनों को समझना मुश्किल नहीं है। कहीं दादा खेला करने के मूड में तो नहीं हैं?
समझदारी की उम्मीद
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में ऑल इंडिया उलेमा बोर्ड ने महाविकास आघाड़ी के सामने कुछ मांगों को रखकर सियासी माहौल गरमा दिया है। इसे दूसरे शब्दों में विवादित भी कहा जा सकता है। बोर्ड ने मुसलमानों के लिए १० प्रतिशत आरक्षण, आरएसएस पर प्रतिबंध, मस्जिदों के इमामों को सरकारी वेतन, पैगंबर मोहम्मद साहब के खिलाफ बोलने वालों पर कानूनी प्रतिबंध लगाने जैसी १७ मांगें रखकर महाविकास आघाड़ी को समर्थन देने की पेशकश की है। बोर्ड द्वारा एमवीए के लिए प्रचार करने की इस पेशकश को धार्मिक आधार पर मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास कहा जा सकता है। भले ही इनमें से कुछ मांगें दुरुस्त हों, लेकिन सार्वजनिक मंच पर इन मांगों को रखना मीडिया अटेंशन माना जाएगा। इन मांगों से चुनाव में धार्मिक ध्रुवीकरण और बढ़ने की आशंका है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित होगी। यह एक तरह से भाजपा की पिच पर खेलना हुआ। महायुति यही तो चाहती है कि चुनाव को हिंदू-मुस्लिम का रंग दिया जाए। बोर्ड को समझना होगा कि समझदार ऐसा कोई काम नहीं करते, जिससे बजाय खुद के, किसी और को फायदा पहुंचे।
रटे-रटाए जुमले
महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में अमित शाह और योगी आदित्यनाथ वही रटे-रटाए जुमले उछाल रहे हैं, जो उन्होंने लोकसभा चुनाव में उछाले थे। उन जुमलों पर मुंह की खाने के बावजूद इन नेताओं ने कुछ सीखा नहीं है। अमित शाह वक्फ जमीन जैसे मुद्दों पर तो योगी `बंटोगे तो कटोगे’ जैसे नारे पर राजनीति कर रहे हैं। जनता तो जनता, भाजपा के सहयोगी भी अब ऐसे जुमलों से तंग आ गए हैं। अजीत पवार से लेकर नीतीश तक भाजपा की बांटने वाली इस राजनीति का विरोध कर चुके हैं। वैसे अमित शाह ने और कुछ किया हो या नहीं `फडणवीस को जिताओ’ वाली बात कहकर गद्दारों को आईना जरूर दिखा दिया है। यहां तक कि भाजपा के कई प्रत्याशियों की प्रचार सामग्री में सीएम की तस्वीर नदारद है। खतरा यह भी है कि क्या वे दोबारा सीएम बन भी पाएंगे, क्योंकि अमित शाह तो फडणवीस को केंद्र में रखकर वोट मांग रहे हैं। इन परिस्थितियों में एकनाथ शिंदे और अजीत पवार के पूरी तरह से भाजपा के जाल में फंसकर चुनाव बाद अप्रासंगिक हो जाने की प्रबल संभावना है।