भारतीय समाज में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना सर्वोपरि रही है। मानवता के प्रति हमारा समाज संवेदनशील रहा है। बदलते परिवेश में यह अक्सर सुनाई देता है कि भारतीय समाज से यह भावना धीरे-धीरे कम होती जा रही है। इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता, लेकिन इसी समाज में ऐसे पहरुए भी हैं, जो ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की मशाल जलाए हुए हैं। उत्तर गौरव में उत्तर हिंदुस्थानी समाज के ऐसे ही पुरोधाओं के जीवन का संघर्ष और संकल्प रेखांकित करने की कोशिश है। नई पीढ़ी के लिए आदर्श स्थापित करने का प्रयास है।
१९८९ का गर्मी का मौसम। मुंबई के हिंदुजा अस्पताल के एयर कंडीशन कमरे में बै’ा एक शख्स एयरकंडीशन होने के बावजूद पसीने से तरबतर था। उसके छोटे भाई की भीतर जांच चल रही थी। डॉक्टर ने संदेह व्यक्त किया था कि उसे वैंâसर हो सकता है। कई दिनों से टेस्ट और रिपोर्ट्स, इसी में उसका दिन गुजर रहा था। वेटिंग रूम में उसने अपने अगल-बगल देखा। सभी लोगों की मन:स्थिति कमोबेश उस जैसी सी ही थी। परेशान। अपने मन को शांत करने के लिए वह चहलकदमी करने लगा। उसकी नजर कोने में बैठे एक उम्रदराज दंपति पर पड़ी। महिला की आंखों में आंसू थे, उसका पति उसे ढांढस देने की कोशिश कर रहा था। उससे रहा नहीं गया। उसने बड़े कोमल शब्दों से उस महिला के रोने की वजह पूछी। महिला के पति ने बताया कि उसका कैंसर का इलाज चल रहा है। काफी महीने बीत चुके हैं और यह ट्रीटमेंट लंबा चलनेवाला है। उनके पास इतनी पूंजी नहीं है कि वह इतना लंबा ट्रीटमेंट करा सकें। मुंबई में उनका कोई ठौर-ठिकाना भी नहीं। न पैसे, न रहने-खाने की व्यवस्था और लंबा इलाज, इन सबने उन्हें तोड़कर रख दिया था। निराश होकर वह अपने गांव बिहार लौटना चाहते थे। उनके पास कोई और रास्ता भी नहीं था। उस शख्स का दिल पसीज उ’ा। कुछ समय के लिए वह यह भूल गया था कि वह अपने छोटे भाई के साथ इस अस्पताल में आया हुआ है। उसने अपनी जेब में हाथ डाले कुछ रुपए उनके हाथ में रखे और अपना फोन नंबर देते हुए कहा, ‘ईश्वर पर भरोसा रखिए सब ‘ीक हो जाएगा… ज्यादा परेशानी हो तो मुझे जरूर फोन कीजिए।’
कई रात वह सो नहीं पाया था। वक्त गुजरता चला गया। उसके भाई का इलाज चलता रहा। इस दौरान इस अस्पताल में उस दंपति की तरह उसे कई लोग मिलते चले गए। पैसों की तंगी के साथ-साथ सिर छुपाने के लिए जगह नहीं थी उनके पास। बारिश की बौछारें राहत देने लगी थीं, लेकिन कुछ लोगों के लिए परेशानी का भी सबब बन रही थीं।
पहले धूप में झुलसते और अब पानी में भीगते मरीजों को देखकर उस शख्स ने एक फ्लैट किराए पर ले लिया, ताकि उन्हें ठौर मिल सके। कुछ मरीजों को मुंबई में सिर छुपाने की जगह मिल गई। इस बीच उसका भाई तो ठीक हो गया, लेकिन उसी के परिवार के और पांच लोगों को इस बीमारी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था। लगातार तीन सालों तक उनके इलाज के चलते इस अस्पताल में दिन गुजारते-गुजारते उसने पांच फ्लैट ले लिए थे, ताकि मरीजों को रहने और खाने की तकलीफों से निजात मिल सके। इस कार्य में उसे मित्रजनों सहित परिजनों का पूरा साथ मिल रहा था। एक वक्त बाद परिवार के सभी लोग ठीक होकर खुशी-खुशी घर लौट आए लेकिन उस शख्स ने हिंदुजा अस्पताल जाना बंद नहीं किया।
अब वहां के मरीज जो मदद के तलबगार थे, वे उस शख्स के नए परिवार का हिस्सा बनते जा रहे थे। नए परिवार का नाम था ‘विश्वास’। पिछले ३० सालों से भी अधिक समय से हिंदुजा अस्पताल में देश के अलग-अलग हिस्सों से इलाज के लिए आ रहे जरूरतमंद रोगियों के लिए विश्वास का सबब बने इस शख्स का नाम है सुरेश अग्रवाल बंका।
६० साल के सुरेश अग्रवाल इस उम्र में भी बिना थके इस नेक कार्य में लगे हुए हैं। ‘इस कार्य में मुझे सबसे ज्यादा सहयोग हिंदुजा अस्पताल और मार्गदर्शन हिंदुजा अस्पताल की डॉ. आशा कपाड़िया का मिला है, जो कैंसर विभाग की हेड हैं। शायद लोगों को पता न हो, लेकिन हिंदुजा अस्पताल में उन कैंसर रोगियों का इलाज मुफ्त या कंसेशनल खर्च में होता है, जो गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। जरूरत होती है सही अप्रोच और जरूरी कागजात की।’ सुरेश अग्रवाल बताते हैं।
उनके एनजीओ ‘विश्वास’, विश्वास रुग्ण सेवा केंद्र का सारा कामकाज ललिता अग्रवाल और रमा बंसल देखती हैं। ८ लोगों की समर्पित टीम का नाम है ‘विश्वास’, जिसमें महेश पोद्दार, अनिल सराफ, महेंद्र गर्ग, प्रेम गुप्ता, विमल अग्रवाल, विमलेश बंसल, अशोक अग्रवाल और आदित्य समरिया हैं। अमेरिका में बसे सुनील बगड़िया का हमेशा सहयोग मिलता रहता है। बंका कहते हैं, ‘कैंसर जानलेवा नहीं है, लाइलाज नहीं है। नई तकनीक और नई दवाइयों से इसका इलाज बिल्कुल संभव है, लेकिन जरूरत है रेग्युलर हेल्थ चेकअप की, ताकि शुरुआत में ही इस बीमारी का पता चल सके। सबसे ज्यादा जरूरत है लोगों में जागरूकता फैलाने की।’
जागरूकता फैलाने के लिए वह लगातार कई कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं। जिसमें कैंसर रोगियों के लिए ब्लड डोनेशन कैंप का आयोजन और कैंसर डिटेक्शन कैंप का आयोजन है। इस दफा २४ मार्च को मैराथन का आयोजन किया जा रहा है। थीम है ‘रन अगेंस्ट कैंसर’।
कैंसर पेशेंट्स के लिए ‘विश्वास’ की तरफ से मनोरंजक कार्यक्रम भी किए जाते हैं। बॉलीवुड के मशहूर कलाकार राकेश बेदी, फेमस रेडियो जॉकी अनुराग पांडे के साथ-साथ अमित कुमार, सुरेश वाडकर, सुदेश भोसले, विनोद रा’ौर जैसे जाने-माने गायकों के रंगारंग कार्यक्रमों से इन मरीजों और उनके परिजनों का मनोरंजन होता है, जो बेहद जरूरी है, उनके जीवन के अवसाद को दूर करने के लिए।
‘विश्वास’ की ओर से कोरोना काल के दौरान जिन लोगों ने जान हथेली पर रखकर मानव सेवा की उन लोगों को ‘मानवता की मिसाल’ पुरस्कार से नवाजा गया। सुरेश अग्रवाल कहते हैं, ‘डॉक्टर्स, नर्स, सफाईकर्मी, पुलिस और पत्रकार ये सभी कोरोना योद्धा हैं। इन सभी लोगों ने उस वक्त जब लोग घर से बाहर निकलने से डर रहे थे तब अपनी जान की परवाह किए बगैर समाज सेवा की। ऐसे लोगों का सम्मान करना समाज की जिम्मेदारी है। विशेष रूप से बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के अस्पताल के कर्मचारियों की भूमिका अहम रही।’
कोरोना के दिनों को याद करते हुए वे बताते हैं कि उन्हें सबसे ज्यादा तकलीफ उस वक्त हुई, जब उस सोसायटी ने जहां पर कैंसर रोगी और उनके परिवार इलाज के दौरान ‘हरते थे, उनके आने-जाने पर पाबंदी लगा दी। हालांकि, सोसायटी में भी सरकारी नियमों का पालन किया था, लेकिन सबसे बड़ी परेशानी इलाज कर रहे मरीज और उनके परिजनों को हो रही थी। ऐसे वक्त में उन्हें साथ मिला स्थानीय एमएलए का। उन्होंने कांदिवली लोखंडवाला में म्हाडा प्लॉट लीज पर दिया और अपने विधायक फंड से एक आवास निर्माण किया। जहां पांच मरीज, परिवार सहित कुल १५ लोग रहते हैं। उनके खाने-पीने रहने आदि की सुविधा नि:शुल्क होती है, जिसका उद्घाटन राकेश बेदी ने किया था।
मूलरूप से चूरू, राजस्थान के सुरेश अग्रवाल १९८६ में नौगांव, असम से मुंबई आए। उन्होंने यहां पर रॉ मैटेरियल ट्रेडिंग का व्यवसाय शुरू किया और उसी में रम गए। बकौल सुरेश अग्रवाल, ‘लेकिन समाज सेवा मेरी नियति थी… शायद इसलिए हालात ऐसे बने और मैं उस दिशा में आगे बढ़ गया। नियति का मुझ पर विश्वास था और ‘विश्वास’ के साथ मेरा विश्वास और दृढ़ होता जा रहा है।’ बेशक, उनके शब्दों में शक की गुंजाइश के लिए जगह है कहां?
‘जब तक देशभर में स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे में सुधार नहीं होता, हालांकि, यह हो रहा है, स्वास्थ्य संबंधी यानी इलाज संबंधित यात्राएं आम बनी रहेंगी। भारत में ७० फीसदी से अधिक हेल्थ केयर जेब से बाहर है, इसलिए इलाज कराना और भी महंगा है। हमें यूनिवर्सल हेल्थ केयर की भी जरूरत है। १.२ अरब लोगों में से लगभग तकरीबन ४० करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं, लेकिन जो लोग मध्यम आय वर्ग के दायरे में हैं, वे भी समान रूप से असुरक्षित हैं और इलाज का खर्च नहीं उठा सकते।’
‘एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीयों द्वारा की जानेवाली अधिकांश ओवरनाइट ट्रिप हेल्थ और मेडिकल इलाज के लिए होती हैं। यह देश के अंदरूनी इलाकों में अच्छे स्वास्थ्य देखभाल बुनियादी ढांचे की कमी की ओर इशारा करता है। ग्रामीण इलाकों से तकरीबन ५० फीसदी लोग इलाज के लिए शहर की तरफ जाते हैं। एक स्टडी बताती है कि वे अपने इलाज की लागत का लगभग ८ से ९ फीसदी अकेले यात्रा पर खर्च करते हैं। मरीज के साथ रहनेवाले व्यक्ति की आय के साथ-साथ उनके रहने की लागत का भी नुकसान होता है। पहुंच की कमी और यात्रा की लागत भी कई लोगों को इलाज न कराने के लिए मजबूर कर सकती है।’