शाहिद ए चौधरी
केरल में वायनाड लोकसभा सीट से अगर उपचुनाव में प्रियंका गांधी वाड्रा जीत जाती हैं, जिसकी प्रबल संभावना है, तो दोनों संसद व विपक्ष की राजनीति में अमूलचूल परिवर्तन आ सकता है। हालांकि, प्रियंका राजनीति में तो कई दशकों से सक्रिय हैं, मसलन रायबरेली व अमेठी में अपने परिजनों के चुनाव प्रचार की कमान संभालती रही हैं और कांग्रेस के लिए अन्य जगहों पर भी प्रचार करती रही हैं, लेकिन यह पहला अवसर होगा, जब वह स्वयं चुनावी मैदान में उतरेंगी। ज्ञात हो कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने २०२४ लोकसभा चुनाव में दोनों रायबरेली व वायनाड से जीत दर्ज की थी और कानूनन उन्हें एक स्थान की सदस्यता छोड़नी थी। उन्होंने वायनाड का त्याग किया। यह निर्णय उनके लिए आसान न था। वायनाड ने उन्हें उस समय संसद में भेजा था, जब २०१९ के लोकसभा चुनाव में वह अमेठी की अपनी परंपरागत सीट से स्मृति ईरानी से हार गए थे।
इस बार दोनों रायबरेली व वायनाड से सफलता हासिल करने के बाद यह अंदाजा तो मामूली सियासत समझने वालों को भी था कि राहुल गांधी रायबरेली से सांसद बने रहेंगे और वायनाड छोड़ देंगे। यह अनुमान अकारण न था। जब सोनिया गांधी ने अपनी बढ़ती आयु व खराब रहते स्वास्थ्य के कारण लोकसभा की बजाय राजस्थान से राज्यसभा में जाने का निर्णय लिया तो वह रायबरेली की सीट, जिसने उनके ससुर फिरोज गांधी, सास इंदिरा गांधी व स्वयं उन्हें लगातार लोकसभा में पहुंचाया, उस सीट को अपने परिवार के सदस्य से अलग किसी अन्य को नहीं देना चाहती थीं। इसलिए रायबरेली की जनसभा में उन्होंने कहा कि ‘मैं अपना बेटा (राहुल गांधी) आपको सौंपकर जा रही हूं, इसका ख्याल रखना’। रायबरेली के मतदाताओं ने उनकी बात का मान रखा, राहुल गांधी को ३,९०,०३० मतों से जिताया। ऐसे में रायबरेली की सीट को छोड़ना कठिन था।
दूसरा कारण यह रहा कि कई आम चुनावों के बाद कांग्रेस ने (सपा के साथ मिलकर) उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन किया है। इस स्थिति में रायबरेली को छोड़ना सियासी अक्लमंदी न होती, विशेषकर इसलिए कि किसी भी उपचुनाव में राज्य में सत्तारूढ़ दल अक्सर लाभ की स्थिति में होता है और लखनऊ में बीजेपी की सरकार है। रायबरेली छोड़ने का अर्थ होता कि बीजेपी को यह अवसर प्रदान करना कि वह उत्तर प्रदेश में अपनी खोयी साख वापस पाने का प्रयास कर ले। लेकिन दूसरी ओर वायनाड ने राहुल गांधी में दोबारा विश्वास व्यक्त करते हुए उन्हें ३,६४,४२२ मतों से जिताया था। इसलिए १२ जून २०२४ को वायनाड में अपनी शुक्रिया यात्रा के दौरान अपनी ‘असमंजस’ की स्थिति का जिक्र किया कि कानूनी मजबूरी के कारण वह रायबरेली को छोडें या वायनाड को। साथ ही अपने प्रशंसकों के हुजूम में उन्होंने एक पोस्टर को देखकर कहा कि मतदाता उनके पैâसले से प्रसन्न होंगे। पोस्टर पर लिखा था- ‘अगर आप नहीं तो अपनी बहन प्रियंका गांधी को हमारा प्रतिनिधित्व करने का मौका दीजिए।’ राहुल गांधी की दुविधा दूर हो गई और अब उपचुनाव में प्रियंका गांधी वायनाड से कांग्रेस की प्रत्याशी होंगी।
राहुल गांधी का कहना है कि वह भी वायनाड आते-जाते रहेंगे व प्रियंका भी रायबरेली से अपना रिश्ता बनाए रखेंगी और इस तरह दोनों रायबरेली व वायनाड को ‘दो-दो जनप्रतिनिधि मिल जाएंगे’। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर प्रियंका गांधी लोकसभा की सदस्य बनती हैं, जिसकी प्रबल संभावना है (बकौल कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ‘जीत उनकी हाथों की लकीरों में है’) तो दोनों सदन व विपक्ष की राजनीति में जबरदस्त परिवर्तन आ सकता है। इस निष्कर्ष का आधार यह है कि २०२४ लोकसभा चुनाव में अपने भाषणों से जिन वक्ताओं ने सबसे अधिक प्रभावित किया उनकी सूची में सबसे पहला नाम प्रियंका गांधी का ही रखा जाएगा। उनकी हिंदी न सिर्फ अच्छी व सबके आसानी से समझ में आने वाली है बल्कि उनके विचार और जो वह करना चाहती हैं भी एकदम स्पष्ट हैं। वह जनता से सहज ही रिश्ता स्थापित कर लेती हैं कि अपने राजनीतिक विरोधियों को भी वह अपनी सी लगती हैं। प्रियंका अपने भाषणों में मुद्दों की बात करती हैं, देश के लिए अपनी दादी इंदिरा गांधी व पिता राजीव गांधी के कार्यों व कुर्बानियों को गिनवाने के साथ ही अपनी मां सोनिया गांधी व भाई राहुल गांधी के सेवा कार्यों व न्याय के लिए प्रयासों को भी याद दिलाना नहीं भूलतीं।
लेकिन इससे भी बढ़कर बात यह है कि अपने चुनावी भाषणों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो मुद्दे उठाए, उनका सबसे स्टीक व तार्किक उत्तर प्रियंका गांधी ने ही दिए। हास्य-व्यंग्य भी प्रियंका के भाषणों का अटूट हिस्सा है। एक सभा में उन्होंने कहा, ‘सावधान हो जाओ, मैं कांग्रेसी हूं, आ गई हूं, आपकी एक भैंस खोलकर ले जाऊंगी।’ यह पीएम मोदी के उस बेतुके जुमले पर जबरदस्त कटाक्ष था, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर आपके पास दो भैंसे हैं तो सत्ता में आने पर कांग्रेस आपसे एक भैंस छीन लेगी। चूंकि प्रियंका बहुत अच्छी वक्ता हैं, बिना टैलिप्राम्प्टर या कागज की मदद से धाराप्रवाह बोलती हैं, इसलिए इंडिया गठबंधन के लगभग हर प्रत्याशी ने अपने चुनाव क्षेत्र में उनसे भाषण का आग्रह किया। उत्तर प्रदेश में प्रियंका ने ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ का नारा दिया था। यह जुझारू प्रवृत्ति उनमें दिखाई भी देती है इसलिए अपने पहले चुनाव को लेकर वह नर्वस नहीं हैं। दिलचस्प तो उनके इस गुण को संसद में देखना होगा क्योंकि जिस सहजता व विश्वास से वह प्रश्नों का उत्तर देती हैं व मुद्दों को उठाती हैं वह अतुलनीय है।
अमेठी में जब यह प्रश्न उठा कि कांग्रेस का एक ‘मामूली कार्यकर्ता’ किशोरीलाल शर्मा बीजेपी की भारी भरकम प्रत्याशी स्मृति ईरानी से कैसे मुकाबला कर सकेगा तो प्रियंका ने विश्वास से कहा था, ‘मैं यहां किशोरी भैय्या के लिए आई हूं, उन्हें यहां से विजयी बनाकर ही जाऊंगी।’ और यही हुआ, शर्मा १.५ लाख मतों से अधिक मतों से जीते। बहरहाल, प्रियंका को वायनाड से प्रत्याशी बनाने का अर्थ है कि केरल की इस सीट, जिसने राहुल गांधी को राजनीतिक संघर्ष की प्रेरणा दी, का कांग्रेस के लिए बहुत अधिक महत्व है और दक्षिण में कांग्रेस की स्ट्रेटेजी का अटूट हिस्सा है। राहुल गांधी के शब्दों में, ‘वायनाड के लोगों ने अति कठिन समय में मुझे अपना सहयोग दिया और लड़ने की ऊर्जा भी। मैं इस बात को कभी नहीं भूलूंगा।’ चूंकि वायनाड कांग्रेस का गढ़ है, इसलिए अनुमान यह है कि प्रियंका आसानी से जीत जाएंगी। इससे दोनों उत्तर व दक्षिण में गांधी परिवार के प्रतिनिधियों की उपस्थिति सुनिश्चित हो जाएगी। यह वायनाड को छोड़ना नहीं, बल्कि उसको अपनाना है।
दक्षिण ने अधिकतर समय कांग्रेस का ही साथ दिया है। इस मूव से कांग्रेस इस आरोप से भी मुक्त हो जाएगी कि वह चुनावी फायदे के बावजूद दक्षिण को अनदेखा करती है। दरअसल, कांग्रेस के लिए प्रियंका का सांसद होना इस लिहाज से भी लाभकारी है कि वह भीड़ को आकर्षित करने वाली अच्छी वक्ता होने के साथ ही उसकी संकटमोचक व मुख्य मीडिएटर भी हैं। राजस्थान में सचिन पायलट के ‘विद्रोह’ पर विराम लगाने में प्रियंका की ही भूमिका थी। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व राजस्थान विधानसभा चुनावों में हार के बाद कांग्रेस को नई संजीवनी देने का श्रेय प्रियंका को ही जाता है, इसलिए उनकी तुलना अक्सर इंदिरा गांधी से की जाती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)