मुख्यपृष्ठस्तंभराज की बात : मिलीभगत की राजनीति का गुजरात पैटर्न

राज की बात : मिलीभगत की राजनीति का गुजरात पैटर्न

द्विजेंद्र तिवारी मुंबई
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने गुजरात में पार्टी नेताओं के एक वर्ग पर ‘भाजपा के साथ मिलीभगत’ का आरोप लगाया और कहा कि पार्टी को जरूरत पड़ने पर ‘२० से ३० लोगों’ को हटाने के लिए तैयार रहना चाहिए। लोकसभा में विपक्ष के नेता ने कहा कि राज्य में कांग्रेस का पुनरुद्धार ‘दो से तीन साल की परियोजना नहीं, बल्कि ५० साल की परियोजना’ है। कांग्रेस नेता की यह चिंता राजनीति के उस दौर पर गंभीर सवाल खड़े करती है, जहां बहुत सारे लोगों के लिए विचारधारा मायने नहीं रखती और वे सत्ता को सिर्फ स्वार्थ सिद्धि का माध्यम मानते हैं। मिलीभगत की राजनीति का यह गुजरात पैटर्न है। उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और गुजरात तक ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो अपने दलों से गद्दारी करते हैं। ऐसे लोग कभी खुलकर तो कभी पार्टी के अंदर रहकर अपनी पार्टी को नुकसान पहुंचाते हैं। महाराष्ट्र में ही ऐसे लोगों ने कांग्रेस का साथ छोड़ा, जिन्हें कांग्रेस ने मुख्यमंत्री तक बनाया। ऐसे लोगों ने राहुल गांधी का साथ छोड़ा, जिन्हें मंत्री से लेकर हर राजनैतिक लाभ मिला।
३० वर्ष से सत्ता से बाहर
गुजरात में कांग्रेस पिछले ३० वर्षों से सत्ता से बाहर है। क्या इन तीस वर्षों में भाजपा ने गुजरात का कायाकल्प कर दिया है? क्या वहां गरीबी और बेरोजगारी का प्रतिशत कम है और देश के बाकी राज्यों से हालात बेहतर हैं? इन सभी प्रश्नों के उत्तर न में हैं। ऐसा होने पर भी कांग्रेस गुजरात के लोगों की उम्मीदों पर खरा क्यों नहीं उतर पा रही है? इसका एक जवाब यह है कि गुजरात में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग आम जनता से कटा हुआ है और भाजपा के साथ मिला हुआ है।
२०१७ के विधान सभा चुनाव में भाजपा हारते-हारते बची। भाजपा को ९९ और कांग्रेस को ७७ सीटें मिलीं। इसके बाद २०२२ के विधान सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी द्वारा १२ प्रतिशत वोट लेने से भाजपा ने १५६ सीटों के साथ भारी बहुमत प्राप्त किया। कांग्रेस को सिर्फ १७ सीटें मिलीं, जिनमें से पांच विधायक बाद में भाजपा में चले गए। खास बात यह है कि दोनों चुनावों में भाजपा ५० प्रतिशत के आसपास रही, जबकि भाजपा विरोधी प्रमुख दलों ने कुल मिलाकर ४० प्रतिशत वोट हासिल किए। २०१७ में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री अजेय कहे जा रहे थे, तब गुजरात में सत्ता जाते-जाते बची। उस समय भी यह बात उभरी कि राज्य के कई बड़े नेताओं से लेकर बूथ लेवल तक कांग्रेसी भाजपा के साथ मिल गए थे। राहुल गांधी को कमजोर करने के लिए एक पूरी लॉबी भाजपा से मिली हुई थी। इनमें से कई लोग आगे चलकर भाजपा में शामिल भी हो गए।
खेल सिर्फ ५ प्रतिशत का
इसका अर्थ यह है कि खेल सिर्फ ५ प्रतिशत का है। नरेंद्र मोदी जी के स्वर्णिम काल में भी भाजपा विरोधी वोट लगभग ४० प्रतिशत थे। इस तरह देखा जाए तो राज्य में विपक्ष वोट कम नहीं हैं। यह बात मीडिया के एक वर्ग और भाजपा ने लोगों के दिमाग में डाल दी है कि कांग्रेस में कोई ताकत नहीं है। यह नैरेटिव सेट करने में भाजपा काफी आगे है। कांग्रेस के लोगों में ही आत्मविश्वास की भारी कमी है। अगर ऐसा न होता तो पार्टी २०१७ में ७७ सीटों से २०२२ में सीधे १७ सीटों पर न आ जाती। इसमें बड़ा योगदान जहां आम आदमी पार्टी के १२ प्रतिशत वोटों का रहा, वहीं कांग्रेस के कई नेताओं का खुलेआम भाजपा के लिए काम करना भी एक बड़ा कारण था। ऊपर से यह हवा भी फैलाई गई कि कांग्रेस से जो जीतेगा, वह भाजपा में ही जाएगा। २०२२ की करारी हार के बाद से गुजरात में कांग्रेस लगभग ठप हो गई। ७७ विधायक होने के बावजूद २०१७ से २०२२ के बीच गुजरात में भाजपा सरकार के खिलाफ कांग्रेस कोई हवा नहीं बना पाई।
पार्टी के तौर पर कांग्रेस के सामने एक और बड़ा सवाल यह है कि नए लोग कब आएंगे और वे कांग्रेस में क्यों आएंगे? लोगों को यह बताना और समझाना आवश्यक है कि विपक्ष क्या कर सकता है। अगर आप विपक्ष में भी रहते हैं, तो आप हजारों लोगों के जीवन पर प्रभाव डाल सकते हैं और एक बड़ा बदलाव ला सकते हैं।
कांग्रेस करो या मरो वाली स्थिति में है। जिन लोगों ने अभी तक पार्टी नहीं छोड़ी है, वे जानते हैं कि भाजपा में उनके लिए कुछ नहीं है, लेकिन व्यापार, रियल एस्टेट या व्यापारिक और भाजपा के सत्ता में होने के कारण उनके अपने निजी हित हैं। ऐसे ही मौन या तटस्थ लोग कांग्रेस का नुकसान कर रहे हैं।
गिरावट राज्य के
शीर्ष नेतृत्व में भी
लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि शीर्ष से ही गिरावट पर चल रही पार्टी के लिए कोई रास्ता आसान नहीं होगा। शीर्ष नेतृत्व के साथ-साथ दिल्ली मुख्यालय में बैठे नेताओं के खिलाफ भी शिकायत है। समस्या यह भी है कि शीर्ष नेतृत्व अनिर्णायक है। कई बार ऐसा होता है जब एआईसीसी संवाद करना बंद कर देती है और राज्य कार्यकारिणी की किसी भी शिकायत पर ध्यान नहीं देती है। जब आपको जमीनी स्तर से बदलाव की जरूरत होती है, तो इसे उदाहरण के तौर पर करना होता है।
राहुल गांधी का यह दौरा गुजरात में ऐसे समय हुआ, जब नगरपालिकाओं पर भाजपा ने हाल ही में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में अपने परचम फहरा दिए। कांग्रेस के स्थानीय नेताओं की भाजपा से मिलीभगत और कमजोर जमीनी नेटवर्क का नतीजा यह रहा कि भाजपा ने ६८ नगर पालिकाओं में से ६२ पर जीत हासिल की, जबकि कांग्रेस को केवल एक ही नपा मिली। २०१८ की तुलना में १२ नगर पालिकाओं का नुकसान हुआ। ६८ नगर पालिकाओं की १,८४० सीटों में से, भाजपा ने १,३४१ और कांग्रेस ने २५२ जीतीं। इसका अर्थ यह हुआ कि २०१७ से भाजपा के खिलाफ जो हवा बन रही थी और जो २०१८ में कुछ हद तक जारी थी, वह २०२२ आते-आते खत्म होने लगी। कांग्रेस के स्थानीय राज्य नेताओं ने इन हालात को काबू नहीं किया। ऐसे में राहुल गांधी का दौरा और इस दौरे में खरी-खरी कहना, उनकी चिंता को रेखांकित करता है। अब गुजरात के कांग्रेस नेता क्या मिलीभगत के इस पैटर्न को नाकाम कर पाएंगे, समय इसे परखेगा।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)

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