द्विजेंद्र तिवारी,
मुंबई
भारत दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन चुका है। आबादी के साथ ही अन्य चीजों पर भार पड़ता ही है, चाहे शिक्षा हो या चिकित्सा हो। इस बढ़ती आबादी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए क्या केंद्र सरकार तैयार थी? क्या केंद्र सरकार ने ऐसे कदम उठाए कि सबको समान शिक्षा मिल सके और ग़रीब से गरीब व्यक्ति को भी सही समय पर समुचित इलाज मिल सके? ऐसा होता दिख नहीं रहा है। भारत में स्वास्थ्य और चिकित्सा की स्थिति पर नजर डालें तो भयावह तस्वीर उभरकर सामने आती है। अगर देश के लोग स्वस्थ नहीं होंगे तो देश की अर्थव्यवस्था वैâसे स्वस्थ होगी?
हाल ही में एक पांच सितारा अस्पताल समूह अपोलो ने सात अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस के अवसर पर अपनी एक रिपोर्ट पेश की है। इस तरह की रिपोर्ट के पीछे अस्पताल का मकसद क्या है यह तो हम नहीं बता सकते हैं, लेकिन इस रिपोर्ट से चिकित्सा और स्वास्थ्य को लेकर गंभीर समस्या उभर कर सामने आती है। अपोलो अस्पताल की इस स्वास्थ्य रिपोर्ट में देश भर में असंक्रामक रोगों (नॉन कम्युनिकेबल डिसीज- एनसीडी) में उल्लेखनीय वृद्धि का पता चला है, जिसमें देश में वैंâसर के मामलों में सबसे तेज वृद्धि देखी जा रही है। अस्पताल द्वारा जारी हेल्थ ऑफ नेशन रिपोर्ट के अनुसार, लगभग तीन में से एक भारतीय प्री-डायबिटिक है, तीन में से दो प्री-हाइपरटेंसिव हैं और १० में से एक डिप्रेशन से पीड़ित है।
रिपोर्ट में भारत में एनसीडी की चिंताजनक वृद्धि पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें वैंâसर, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और मानसिक स्वास्थ्य मुद्दे शामिल हैं, जो देश के स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। विशेष रूप से भारत में वैंâसर की घटनाएं वैश्विक दरों की तुलना में बढ़ रही हैं, जिससे देश को ‘दुनिया की वैंâसर राजधानी’ कहा जाने लगा है।
इसके अलावा, रिपोर्ट में प्री-डायबिटीज, प्री-हाइपरटेंशन और कम उम्र में होनेवाले मानसिक स्वास्थ्य विकारों जैसी स्थितियों के कारण स्वास्थ्य देखभाल के बोझ में संभावित वृद्धि का अनुमान लगाया गया है।
चुनाव वर्ष होने के कारण इस वर्ष आर्थिक सर्वेक्षण और पूर्ण बजट पेश नहीं किया गया। पिछले वर्ष पेश आर्थिक सर्वेक्षण २०२२-२३ के अनुसार, स्वास्थ्य क्षेत्र पर केंद्र और राज्य सरकारों का बजट व्यय वित्त वर्ष २०२३ में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का २.१ प्रतिशत और वित्त वर्ष २०२२ में २.२ प्रतिशत तक पहुंच गया था, जबकि वित्त वर्ष २०२१ में यह १.६ प्रतिशत था। मोदी सरकार के आखिरी पूर्ण बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र में कंजूसी बरती गई, जिसमें बजट व्यय कम होकर जीडीपी का लगभग १.९८ प्रतिशत हो गया। यह तब है जब राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (२०१७) में २०२५ तक सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को समयबद्ध तरीके से सकल घरेलू उत्पाद का २.५ प्रतिशत तक बढ़ाने की परिकल्पना की गई है। स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के लिए मामूली आवंटन जारी रखने से भारत का स्वास्थ्य खर्च सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में विश्व और अन्य विकासशील और विकसित देशों के औसत से काफी कम हो गया है। भारत का खर्च कमजोर पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे देशों से तो ज्यादा है, पर यूनाइटेड किंगडम, न्यूजीलैंड, फिनलैंड, नीदरलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की तुलना में बहुत कम है। ये देश स्वास्थ्य पर अपने कुल सकल घरेलू उत्पाद का ८ प्रतिशत से अधिक खर्च करते हैं। इसी तरह जापान, कनाडा, स्विट्जरलैंड, प्रâांस, जर्मनी अपनी कुल जीडीपी का कम से कम ९ प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करते हैं, वहीं अमेरिका स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का करीब १५ फीसदी खर्च करता है।
पिछले काफी समय से नया सर्वे नहीं किया गया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा २०२१ में जारी पिछले सर्वे के मुताबिक, ३१ मार्च २०२१ तक देश के शहरी क्षेत्रों में कुल लगभग ५,४०० प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और आदिवासी क्षेत्रों में लगभग ४००० पीएचसी हैं। नीति आयोग ने २०२१ में जारी एक रिपोर्ट में कहा कि भारत की ५० प्रतिशत आबादी के लिए केवल ३५ प्रतिशत हॉस्पिटल बेड हैं। बाकी बेड सुविधा उनकी पहुंच से बाहर है।
केंद्रीय बजट २०२३-२४ में कहा गया था कि २०१४ से स्थापित मौजूदा १५७ मेडिकल कॉलेजों के सह-स्थान पर १५७ नए नर्सिंग कॉलेज स्थापित किए जाएंगे। इनमें से कितने नए नर्सिंग-कॉलेज खुले, इसका कोई हिसाब-किताब मौजूदा सरकार के पास नहीं है। भारत में असंक्रामक रोगों (एनसीडी) का बोझ लगातार बढ़ रहा है। २०२१ में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में सभी मौतों में एनसीडी की वजह से १९९० में ३७.९ प्रतिशत से बढ़कर २०१६ में ६१.८ प्रतिशत हो गया। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-५) द्वारा मई २०२२ में जारी रिपोर्ट में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने पाया कि पुरुषों और महिलाओं में अधिक वजन या मोटापे की व्यापकता, भारत में एनसीडी के प्रसार का एक बड़ा कारण है।
साथ ही विश्वव्यापी आंकड़ों के लिए प्रसिद्ध स्टेटिस्टा के मुताबिक, २०२२ में भारत में असंक्रामक रोगों से होनेवाली मौतों की हिस्सेदारी ७० फीसदी के करीब थी। दूसरी ओर असंक्रामक श्रेणी के कारण होनेवाली असामयिक मौतों की हिस्सेदारी २० प्रतिशत से अधिक थी। देश में पिछले एक दशक में बचपन में वैंâसर से होनेवाली मौतों की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है।
बजट में स्वास्थ्य आवंटन में सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली और प्रौद्योगिकी को मजबूत करने पर जोर नहीं दिया गया। प्राइवेट अस्पतालों द्वारा लिए जाने वाले भारी शुल्कों के कारण वहां कम आय वर्ग के लोगों द्वारा किसी भी तरह से इलाज प्राप्त करना असंभव है। इस पर केंद्र सरकार ने कोई भी कदम नहीं उठाए हैं, बल्कि ऐसे ही महंगे अस्पतालों से इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए अरबों रुपए का चंदा भाजपा को मिला है। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे पर ध्यान नहीं दिया गया। विभिन्न प्रकार की चिकित्सा जांचों के लिए, ग्रामीण आबादी को शहरी क्षेत्रों का रुख करना पड़ता है। सार्वजनिक क्षेत्र में सीमित क्षमता को देखते हुए, निजी क्षेत्र पर उनकी निर्भरता एक स्पष्ट विकल्प बन जाती है। केंद्र सरकार ने इन पहलुओं पर कोई विचार नहीं किया।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)