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राज की बात :  भाषा की मर्यादा भूले मोदी जी, सत्ता हाथ से फिसलने की बौखलाहट

द्विजेंद्र तिवारी

जैसे-जैसे लोकसभा चुनावों का आखिरी दौर नजदीक आ रहा है, राजनीतिक दलों के नेताओं के शब्दों के बाण तीखे होते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप लग रहे हैं कि वे अपने प्रधानमंत्री पद की मर्यादा भूलकर अवांछनीय और अशोभनीय शब्दों का इस्तेमाल प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों और दलों के लिए कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने विपक्षी इंडिया गठबंधन पर ‘वोट बैंक के लिए मुजरा’ करने जैसे आरोप लगाए हैं, जिसे लेकर सभी विपक्षी नेता आक्रामक हैं।
मोदी जी और उनके सहयोगी भाजपा नेताओं ने क्रिकेट की स्लेजिंग वाली रणनीति अपनाई है। उन्हें अब यह एहसास हो चला है कि सत्ता उनके हाथ से फिसल रही है। ऐसे में क्रिकेट की स्लेजिंग तकनीक अपनाकर वे अपनी विकेट बचाने की कोशिश कर रहे हैं।
क्रिकेट के खेल में स्लेजिंग का मतलब होता है, जान-बूझकर किसी विरोधी खिलाड़ी का अपमान करना। इसका उद्देश्य प्रतिद्वंद्वी की एकाग्रता को भंग करना होता है। इससे प्रतिद्वंद्वी अपनी एकाग्रता खो सकता है और ग़ुस्से में आ सकता है। ऐसा होने पर उसके खेल पर विपरीत असर पड़ सकता है। हाल ही में मुंबई इंडियंस के कप्तान हार्दिक पंड्या को जिस तरह से स्लेजिंग का शिकार बनाया गया, उससे उनके प्रदर्शन पर बुरा असर पड़ा।
क्रिकेट जैसी यह स्लेजिंग वाली ओछी हरकत हमारे देश में भी इस लोकसभा चुनाव में काफी देखने को मिली। चुनाव में व्यक्तिगत हमले, भड़काऊ सांप्रदायिक और लैंगिकवादी कटाक्ष तथा पक्षपातपूर्ण राजनीतिक बयानबाजी को बढ़ावा दिया गया। यह लोकतांत्रिक मानदंडों को कमजोर करता है तथा समग्र रूप से सार्वजनिक संवाद की गुणवत्ता को कम करता है।
आसन्न हार की हताशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष के लिए आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करके अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा को गिराया है। देश के इतिहास में किसी भी प्रधानमंत्री ने ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया। उन्होंने विपक्षी नेताओं का अपमान किया। इससे उनकी असलियत उजागर होती है। वे भारत जैसे महान देश के प्रधानमंत्री हैं, तो प्रधानमंत्री की राजनीतिक भाषा के बारे में दुनिया क्या सोचती होगी। अगर कोई यह कहने लगे कि मुझे भगवान ने भेजा है, तो लोग ऐसे व्यक्ति के बारे में क्या सोचेंगे। अगर आप और हम ऐसा कहें, तो लोग डॉक्टर के पास ले जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी की भाषा ऐसे उच्च संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति जैसी नहीं लगती। अपनी वाणी पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। पिछले कुछ चुनाव अभियानों में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द किसी देश के प्रधानमंत्री के पद के लिए उपयुक्त नहीं हैं। भले ही यह चुनाव का समय है, लेकिन प्रधानमंत्री को अपने पद की गरिमा बनाए रखनी चाहिए। प्रधानमंत्री ने पटना में अपने हालिया भाषण में जिन शब्दों का इस्तेमाल किया है, वे बेहद निंदनीय हैं। उन्हें ऐसे शब्द कहां से मिलते हैं?
कई बार लगता है जैसे मोदी जी को सलाह देने वाले या उनका भाषण लिखने वाले उनका भला नहीं चाहते। उनका भाषण लिखने वाले को ध्यान रखना चाहिए कि वह सिर्फ भाजपा के गल्ली नेता नहीं, बल्कि देश के प्रधानमंत्री भी हैं।
मोदी जी से यह अपेक्षा थी कि वह भ्रष्टाचार और आरक्षण के मुद्दे पर अपनी पार्टी की राय स्पष्ट करें, लेकिन वे कुल मिलाकर अपने भाषणों में मुद्दों को गोल-गोल घुमा रहे हैं और विपक्ष पर अमर्यादित टिप्पणी करने के अलावा उनके पास बताने के लिए कुछ भी नहीं बचा है। मूल मुद्दा आरक्षण का है और तथ्य यह है कि पिछले १० वर्षों में मोदी सरकार के तहत आरक्षण के अधिकारों को बहुत कमजोर किया गया है।
हाल के लोकसभा चुनावों में पाखंड, अपमान, बदनामी, अहंकारी उपहास तथा लैंगिकवादी अपशब्दों से भरा हुआ एक भ्रष्ट मार्ग अपनाया गया। इस तरह के घृणित व्यवहारों से न केवल एक विषाक्त राजनीतिक माहौल बना, बल्कि रचनात्मक संवाद तथा लोकतांत्रिक जुड़ाव कठिन हो गया। जनता के असली मुद्दे गायब हो गए और सत्ता की जवाबदेही तय करने का एक बेहतरीन मौका पीछे चला गया। नकारात्मक शब्दावली का प्रयोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जमकर किया। कांग्रेस को ‘भ्रष्टाचार की जननी’ कहा। प्रधानमंत्री ने इंडिया ब्लॉक पर निशाना साधा तथा इसे ‘घोटालेबाजों का समूह’ करार दिया। जबकि सच्चाई यह है कि देश के सौ से भी ज्यादा सबसे बड़े घोटालेबाज भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो चुके हैं। ऐसे में मोदी जी का आरोप बिल्कुल खोखला है।
अपने राजनीतिक एजेंडे को वैध बनाने के लिए, मोदी अपने विरोधियों की राजनीतिक छवि को खराब करने के उद्देश्य से उनके बारे में अपमानजनक शब्दों का सहारा ले रहे हैं।
चुनावी अभियान में बदनामी और दुश्मनी की परंपरा कोई नई प्रवृत्ति नहीं है, लेकिन इस चुनाव में यह स्पष्ट रूप से तेज हो गई है।
मोदी जी यह भूल रहे हैं कि अपमानजनक भाषा का आम जनता पर विपरीत असर पड़ता है। इसमें शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों तरह की हिंसा भड़काने, सामाजिक दरारों को बढ़ाने और असहिष्णुता की संस्कृति को बढ़ावा देने का खतरा पैदा होता है। चुनाव तो जल्द ही अब खत्म हो जाएंगे, पर चुनाव अभियान से उपजी वैमनस्यता लंबे समय तक बनी रहती है। सामाजिक ताना-बाना इससे बहुत प्रभावित होता है। सामाजिक और धार्मिक तनाव बनने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं।
इससे लोकतांत्रिक प्रणाली की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठते हैं और मतदाताओं को रचनात्मक, मुद्दे-आधारित राजनीति से यह अलग-थलग कर देता है। वैश्विक स्तर पर भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बारे में सवाल उठाने का मौका विरोधी देशों को मिलता है। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए चुनाव आयोग से सक्रिय हस्तक्षेप की आवश्यकता महसूस की जा रही है ताकि भाषा के अवांछनीय उपयोग को रोका जा सके। पर अफसोस यह है कि आयोग इस बारे में कानों में तेल डाले हुए है।

(लेखक कई पत्र पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)

 

 

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