मुख्यपृष्ठस्तंभराज की बात : ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ खोखला नारा

राज की बात : ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ खोखला नारा

द्विजेंद्र तिवारी
मुंबई

भारत के राजनीतिक परिदृश्य में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा फिर से तीव्र बहस का विषय बन गई है। इस विचार में शासन को सुव्यवस्थित करने, चुनाव लागत को कम करने और चुनाव से रुकनेवाले विकास कार्यों को अबाधित करने के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने की परिकल्पना की गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए तर्क दिया है कि बार-बार चुनाव कराने से शासन में बाधा आती है और राजकोष पर बोझ पड़ता है। हालांकि, विपक्ष और विभिन्न क्षेत्रीय दलों ने इसकी व्यवहार्यता और भारत के संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक बहुलता के लिए संभावित खतरों के बारे में गंभीर चिंताएं जताई हैं।
एक साथ चुनावों की अवधारणा आकर्षक लग सकती है, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में इसका कार्यान्वयन महत्वपूर्ण चुनौतियां खड़े करता है।
भारत में एक राष्ट्र, एक चुनाव क्यों खोखला नारा है, इसके प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं-
१. संघवाद और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के लिए खतरा –
भारत एक संघीय ढांचे के तहत काम करता है, जहां राज्यों को महत्वपूर्ण स्वायत्तता प्राप्त है। बार-बार होनेवाले चुनाव राज्यस्तरीय समस्याओं के समाधान और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक सीधा चैनल के रूप में काम करते हैं। चुनावों को एक साथ करने से स्थानीय मुद्दों का महत्व कम हो सकता है, जो प्रमुख राष्ट्रीय दलों द्वारा संचालित राष्ट्रीय मुद्दों से प्रभावित हो सकते हैं। यह क्षेत्रीय दलों को हाशिए पर डाल सकता है और भारतीय लोकतंत्र की नींव बनानेवाली विविधता को कमजोर कर सकता है।
उदाहरण के लिए, यदि कोई राज्य सरकार बहुमत खो देती है, तो इस प्रस्तावित प्रणाली के तहत, अगले राष्ट्रीय चुनाव चक्र तक के लिए फिर से चुनाव या राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। यह मतदाताओं के अपने प्रतिनिधियों को आवश्यकता पड़ने पर चुनने के अधिकार को नकारता है, जो समय पर जवाबदेही के मूल लोकतांत्रिक सिद्धांत को खतरे में डालता है।
२. व्यवस्थागत और संवैधानिक चुनौतियां –
भारत के चुनाव अलग-अलग समयसीमाओं में होते हैं, ताकि इसमें शामिल विशाल मशीनरी का प्रबंधन किया जा सके। चुनावों को एक साथ करने के लिए ३६ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सुरक्षा बलों, चुनावी कर्मचारियों और संसाधनों की भारी तैनाती की आवश्यकता होगी, जो अवास्तविक साबित हो सकता है।
इसके अलावा, ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ को लागू करने के लिए महत्वपूर्ण संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी, विशेष रूप से अनुच्छेद ८३, ८५, १७२ और १७४ में, जो संसद और राज्य विधानसभाओं की अवधि और विघटन को नियंत्रित करते हैं। इन प्रावधानों को संशोधित करने के लिए राज्यों में आम सहमति की आवश्यकता होती है, जिनमें से कई क्षेत्रीय दल स्वायत्तता को कम करने के आधार पर इस कदम का विरोध करते हैं।
३. नीतिगत जोखिम-
नियमित अंतराल पर चुनाव सरकारों को जनता की भावनाओं के प्रति उत्तरदायी बने रहने के लिए बाध्य करते हैं। हर पांच वर्ष में केवल एक बार चुनाव कराने से बीच की अवधि के दौरान जवाबदेही की कमी हो सकती है। इसके अलावा, मतदाता राज्यस्तरीय चुनावों के माध्यम से असंतोष व्यक्त करते हैं, जो सत्तारूढ़ दलों पर अंकुश का काम करते हैं। इस तंत्र के बिना, सरकारें आत्मसंतुष्ट हो सकती हैं, जिससे नीतिगत जड़ता पैदा हो सकती है।
४. सत्ता का अतिकेंद्रीकरण-
एकल चुनाव चक्र प्रमुख राष्ट्रीय दलों को राज्यों में सत्ता को मजबूत करने का अवसर देकर बहुसंख्यकवाद को मजबूत कर सकता है। छोटी पार्टियां अक्सर अति-स्थानीय मुद्दों को उठाकर राज्य के चुनाव जीतती हैं। ये पार्टियां राष्ट्रीयस्तर के अभियानों के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करने के लिए कमतर पड़ सकती हैं। इससे क्षेत्रीय पहचानें कमजोर हो सकती हैं और भारतीय राजनीति में एकरूपता आ सकती है, जिससे देश को परिभाषित करनेवाली समृद्ध राजनीतिक संरचना नष्ट हो सकती है।
वैश्विक तुलना और सबक
दुनियाभर के कई लोकतंत्रों ने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय शासन को संतुलित करने के लिए अलग-अलग चुनावी प्रणाली अपनाई है। कोई भी बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत के प्रस्तावित ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ मॉडल पर काम नहीं करता है।
१. अमेरिका:
भारत की तरह अमेरिका भी एक संघीय लोकतंत्र है। जहां राष्ट्रपति और देश की कांग्रेस के चुनाव तय तिथियों पर होते हैं, वहीं राज्य और स्थानीय चुनाव स्वतंत्र रूप से होते हैं। इससे राज्यों को राष्ट्रीय राजनीति के हस्तक्षेप के बिना स्थानीय मुद्दों को उठाने का मौका मिलता है, जिससे राज्यों की स्वायत्तता बनी रहती है।
२. जर्मनी:
जर्मनी एक विकेंद्रीकृत संघीय प्रणाली के तहत काम करता है। बुंडेस्टैग (संघीय संसद) के लिए चुनाव हर चार साल में होते हैं, जबकि राज्य चुनाव क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग होते हैं। यह चरणबद्ध दृष्टिकोण निरंतर राजनीतिक जुड़ाव और जवाबदेही सुनिश्चित करता है।
३. ऑस्ट्रेलिया:
ऑस्ट्रेलिया में संघीय और राज्य चुनाव अलग-अलग होते हैं। संघीय सरकार राज्य चुनाव चक्रों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है, जो क्षेत्रीय स्वायत्तता के प्रति सम्मान को दर्शाता है।
ऐतिहासिक रूप से भारत में १९५१-५२ और १९६७ के बीच एक साथ चुनाव हुए। राजनीतिक परिदृश्य में विविधता आने के कारण यह प्रथा समाप्त हो गई, जिसके कारण अलग-अलग समय पर विधानसभाएं भंग हो गर्इं। खंडित जनादेश और क्षेत्रीय दलों के बढ़ते महत्व ने क्रमिक चुनावों को लोकतांत्रिक आवश्यकता बना दिया।
आज, भारत के मतदाता पहले से कहीं अधिक राजनीतिक रूप से जागरूक और विविध हैं। स्थानीय मुद्दे चुनावी नतीजों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और तमिलनाडु में डीएमके जैसी क्षेत्रीय पार्टियों की जीत लगातार चुनावी मुकाबलों के माध्यम से राज्यस्तरीय मुद्दों के महत्व को रेखांकित करती है।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)

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