द्विजेंद्र तिवारी मुंबई
आज वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण बजट पेश कर रही हैं। दस वर्ष से देशवासी मोदी जी की सरकार के बजट देख रहे हैं। हो सकता है कि इनमें से कुछ घोषणाएं सुनने में तो अच्छी लगें, पर गहराई से सोचेंगे तो बजट की सारी घोषणाएं पिछले १० वर्ष की तरह हवा हवाई ही नजर आएंगी। पूरी तरह से अर्थनीति विहीन भाजपा सरकार ने पिछले १० वर्षों में बेरोजगारी का ज्वालामुखी पैदा कर दिया है। मोदी जी के राज्य गुजरात के भरूच में रेलिंग टूटकर गिरते युवाओं की तस्वीर आपके जेहन में ताजा होगी।
यह भी देखना दिलचस्प होगा कि लोकसभा चुनाव के दौरान १४ अप्रैल को जारी चुनावी घोषणापत्र का कोई मुद्दा आज के बजट में शामिल है या नहीं। वैसे भाजपा द्वारा जारी उस घोषणापत्र में अर्थव्यवस्था को लेकर कोई ठोस रणनीति का ख़ुलासा नहीं किया गया था। उसमें भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनाने की बात की गई थी।
भारत ३.७ ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी तो अभी है। ४.२ ट्रिलियन डॉलर जीडीपी वाले जापान और ४.५ ट्रिलियन डॉलर वाले जर्मनी को पछाड़ना अब कोई बड़ी बात नहीं रह गई है। भारत ने हाल के वर्षों में ब्रिटेन, प्रâांस, इटली और ब्राजील को पीछे छोड़ दिया है। यह आबादी, खपत और उत्पादन के समीकरण पर निर्भर करता है कि किसी देश की जीडीपी कितनी होगी। कहने को तो कंगाल पाकिस्तान की जीडीपी न्यूजीलैंड, कतर, यूरोपीय देशों ग्रीस, हंगरी, पुर्तगाल, फिनलैंड सहित कई विकसित देशों से ज्यादा है। तो क्या पाकिस्तान उन देशों से अमीर कहा जाएगा? वहां ८०० रुपए (भारत के २४० रुपए) प्रति किलो आटा बिक रहा है और २५ रुपए की एक रोटी बिक रही है। इसलिए दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी इकोनॉमी बनकर पीठ थपथपाने वाले मोदी जी से यह पूछा जाना चाहिए कि जीडीपी की वृद्धि का फायदा गरीबी और बेरोजगारी को दूर करने में कितना मिला। तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने तक क्या इन दोनों समस्याओं से देश को छुटकारा मिल जाएगा?
वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब नामक संस्था के अनुसार, १³ भारतीयों को देश की वार्षिक राष्ट्रीय आय का लगभग २३³ प्राप्त होता है और देश की संपत्ति का ४०³ हिस्सा उनके पास है। इसीलिए अब दुनिया के आर्थिक विशेषज्ञ भी यह कहने लगे हैं कि भले ही भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाए, यह एक गरीब देश ही रहेगा।
प्रति व्यक्ति आय में भारत दुनिया में १४३वें स्थान पर है। यह बढ़ती आर्थिक असमानता की कठोर वास्तविकता को उजागर करता है। इससे यह साबित होता है कि केवल जीडीपी बढ़ने से देश आगे नहीं बढ़ता।
आजकल मोदी सरकार इंप्रâास्ट्रक्चर को लेकर बड़े-बड़े दावे करती है। पुल, सड़क, हाइवे, बुलेट ट्रेन पर जमकर खजाना लुटा रही है। वहां अधिक खर्च का मतलब है स्वास्थ्य और सार्वजनिक शिक्षा में सुधार और विस्तार पर कम खर्च। इस बजट में भी कुछ ऐसा ही होने की पूरी संभावना है। नई सड़कों, हवाई अड्डों, बंदरगाह और मेट्रो पर सालाना करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, जिनकी गुणवत्ता संदेह के घेरे में है। सड़कें एक बारिश में चांद की सतह का नजारा पेश करती हैं और पुल ढह रहे हैं।
देश का विशाल असंगठित क्षेत्र, कुटीर व छोटे उद्योग इस देश की रीढ़ हैं। लेकिन नोटबंदी और जीएसटी के कारण अभी तक वे उबर नहीं पाए हैं, तो दूसरी तरफ एफडीआई (विदेशी निवेश) कम हो रहा है। सरकार की अनिश्चित नीतियों के चलते अमेरिका के मशहूर उद्योगपति एलन मस्क भारत में निवेश का मन नहीं बना पाए हैं। ताइवान की कंपनी फॉक्सकॉन भी चिप निर्माण पैâक्ट्री बनाने से पीछे हट रहा है। महाराष्ट्र से हटाकर यह उद्योग गुजरात ले जाया गया, पर अब इस बहुचर्चित और विवादित परियोजना का कुछ अता-पता नहीं है। ऐसे बहुत से विदेशी निवेशक भारत आने से पहले ठिठक गए हैं। उन्हें इस बात के फीडबैक मिल चुके हैं कि मोदी सरकार में कुछ औद्योगिक घरानों को राज्याश्रय प्राप्त है।
बेरोजगारी और महंगाई के कारण आर्थिक असमानता बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइज़ेशन) की एक रिपोर्ट के अनुसार, शिक्षित युवाओं में दो-तिहाई युवा बेरोजगार हैं। शिक्षित बेरोजगारों की संख्या सन् २००० में ५४.२ प्रतिशत थी, जो २०२२ में बढ़कर ६५.७ प्रतिशत हो गई। २०१४ के बाद से भारत में वेतनमान में भी कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। इसका सीधा असर लोगों की क्रय शक्ति पर पड़ा है और छोटे व मझोले उद्योगों में लगातार मंदी छाई है।
विश्व बैंक के कई प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री कह चुके हैं कि भारत अपनी एक बड़ी कामकाजी आयु वाली आबादी के जरिए आर्थिक उन्नति का सुनहरा अवसर खो रहा है, जो आने वाले समय के लिए बहुत बुरा साबित होगा। रोजगार सृजन में नाकामी एक ऐसी समस्या है, जिसे मोदी जी हल करने में असमर्थ रहे हैं।
२०१४ में अपनी जीत के तुरंत बाद, प्रधानमंत्री मोदी जी ने भारत को दुनिया की पैâक्ट्री बनाने के लिए एक महत्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया’ अभियान शुरू किया। २०२० में, उनकी सरकार ने भारत की निर्माण क्षमताओं को बढ़ाने के लिए सेमी-कंडक्टर से लेकर मोबाइल इलेक्ट्रॉनिक्स तक के क्षेत्रों की कंपनियों को करोड़ों रुपए बांटे। इन योजनाओं के बारे में वर्तमान में सरकार के पास कोई ठोस आंकड़ा नहीं है। इन योजनाओं से क्या हासिल हुआ, कोई बताने की स्थिति में नहीं है। हर बार कोई नया जुमला उछालना और फिर भूल जाना, इस सरकार की विशेषता है।
कार और महंगी घड़ियां बनाने वाले लग्जरी ब्रांड भारत में तेजी से बढ़ रहे हैं, जिनके उपभोक्ता कम हैं। जन सामान्य के उपयोग की वस्तुएं बनाने वाली कंपनियों की तुलना में वे तेजी से बढ़ रहे हैं। मुट्ठीभर बड़े समूह छोटे उद्योगों को खत्म कर रहे हैं। अति-धनवानों को टैक्स में कटौती, कर्जमाफी और आर्थिक लाभ दिलाने की मोदी सरकार की नीति है। पोर्ट और हवाई अड्डों जैसी बेशकीमती सार्वजनिक संपत्तियों के निर्माण या संचालन का ठेका चुनिंदा और पसंदीदा कंपनियों को दिया जा रहा है।
आज के बजट में कुछ रंगीन सपने तो कुछ हवाई वादे उछाले जाएंगे। बिना किसी आर्थिक सर्वे, चर्चा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के यह बजट बनाया गया है। बजट बनाने से पहले सरकार ने युवाओं, किसानों, गरीबों, बेरोजगारों से कोई चर्चा नहीं की। इनकम टैक्स में मामूली राहत की उम्मीद लगाने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि देश के करोड़ों युवाओं की कोई इनकम नहीं है।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं।)