राजेश विक्रांत
मुंबई
कहते हैं कि सरकार अगर बहरी और पत्थर दिल हो तो देश के नागरिकों की दुर्दशा होनी ही है। फिर चाहे आम नागरिक हों या सैनिक सभी का जीवन नरक बन जाता है। सेना में वन रैंक वन पेंशन-ओआरओपी को लेकर मोदी सरकार दर्जनों वादे कर चुकी है, लेकिन असलियत में स्थितियां जस की तस हैं। चाहे सुप्रीम कोर्ट की फटकार हो या फिर पूर्व सैनिकों का धरना, प्रदर्शन, रैली, भूख हड़ताल हो या अन्य किसी प्रकार का विरोध, सरकार तो बस सरकार है। लफ्फाजी उसका यूएसपी है, बयानबाजी उसका गुण है। वो देगी कम, चिल्लाएगी ज्यादा। लेकिन सरकार की इस कवायद से लगता है कि दाल में कुछ काला जरूर है। जानकारों का कहना है कि ओआरओपी पर मोदी की लफ्फाजी एक बड़े घोटाले का संकेत है। मोदी जी कभी कहते हैं कि ओआरओपी के तहत ३५ हजार करोड़ रुपए वितरित किए जा चुके हैं। कुछ ही दिन में ये आंकड़ा ७० हजार करोड़ हो जाता है। फिर मोदी की गारंटी में ७० हजार करोड़ बढ़कर १ लाख करोड़ हो जाता है, जबकि ओआरओपी में २०१४ में कुल खर्च ८,३०० करोड़ रुपए था। २०१५ में सरकार ने ५,३०० करोड़ रुपए पास किया था। ये २०१९ में १७ हजार करोड़ रुपए हुआ और आज इस रकम को २३ हजार करोड़ रुपए होना चाहिए। तो फिर मोदी सरकार द्वारा १ लाख करोड़ वैâसे वितरित किए गए? बाकी के तकरीबन ८० हजार करोड़ रुपए कहां गए? जबकि राजधानी नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर पूर्व सैनिक २० फरवरी, २०२३ से लगातार धरने पर बैठे हुए हैं। रैलियां कर रहे हैं। प्रदर्शन कर रहे हैं। पूर्व सैनिकों के मान-सम्मान और ओआरओपी में हुई विसंगतियों के बारे में आवाज उठा रहे हैं। २३ फरवरी, २०२३ और आज ७ मार्च, २०२४ है यानी १ साल १५ दिन से जंतर-मंतर पर पूर्व सैनिकों, ऑन सर्विस सैनिकों, वीरांगनाओं विधवा व दिव्यांग साथियों की आवाज पूर्व सैनिक उठा रहे हैं। इन्होंने देश के सभी जिलों में जिलाधिकारियों, सांसदों के माध्यम से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री को बार-बार भूख हड़ताल, रोष प्रदर्शन, रोष मार्च, रैलियां करके व रेल रोक कर भी मांग पत्र दिए हैं लेकिन सरकार ने अभी तक कोई उचित संज्ञान नहीं लिया। सरकार सिर्फ लफ्फाजी कर रही है। इस लफ्फाजी पर सुप्रीम कोर्ट भी सरकार को फटकार चुका है। लेकिन सरकार अपने कानों में बेशर्मी का तेल डालकर सो रही है।
वैसे मोदी सरकार वन ओआरओपी का एलान कर चुकी है, लेकिन इसको लेकर जंतर-मंतर पर पिछले एक साल से आंदोलन कर रहे पूर्व सैनिकों का कहना है कि सरकार असली वाली ओआरओपी नहीं लागू कर रही है। इसको लेकर पूर्व सैनिक न केवल अपना मेडल लौटा चुके हैं, बल्कि मेडल जलाने की कोशिश भी कर चुके हैं। आंदोलन कर रहे पूर्व सैनिकों का कहना है कि मोदी सरकार ने जिस ओआरओपी का वादा किया था, उसे जल्दी से जल्दी पूरा करे।
कुछ राज्य सरकारों ने भी सैनिकों की इस मांग का समर्थन किया था। यह आंदोलन इतना तेज हुआ कि पूर्व सैनिकों ने अपने खून से पत्र लिखकर राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया और हजारों सैनिकों ने अपने मेडल तक वापस कर दिए।
ओआरओपी की मांग कोई नई नहीं है। मजे की बात ये है कि १९७३ तक सशस्त्र बलों में ओआरओपी अस्तित्व में थी और उन्हें अन्य सरकारी कर्मचारियों से ज्यादा वेतन मिलता था। लेकिन १९७३ में जब केंद्र सरकार ने तीसरा वेतन आयोग लागू किया तो सैनिकों का वेतन अन्य सरकारी कर्मचारियों के समान हो गया। ये एक बड़ी विसंगति थी क्योंकि आम सरकारी कर्मचारियों से सैनिकों की जिमेदारियां ज्यादा थीं। वैसे एक आम कर्मचारी और सैनिकों की ड्यूटी में अंतर तो होता ही है। अगर सरकार ने तीसरे वेतन आयोग के समय इस बात को ध्यान में रखा होता तो शायद आज सैनिकों को इतना संघर्ष न करना पड़ता। बहरहाल, सन २००८ में पूर्व सैनिकों ने एक संगठन बनाकर ओआरओपी की मांग को लेकर एक बड़ा आंदोलन किया। नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर यह आंदोलन लगातार ८५ दिन चला था। तत्कालीन सरकार के आश्वासन के बाद पूर्व सैनिकों ने आंदोलन खत्म कर दिया था। लेकिन आश्वासन के बावजूद सरकार ने कुछ नहीं किया तो पूर्व सैनिकों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सितंबर २००९ में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पैâसले में सरकार को आदेश दिया कि पूर्व सैनिकों की ओआरओपी की मांग जायज है इसलिए सरकार इस योजना को लागू करे। आगे चलकर २०१० में रक्षा मामलों पर बनी संसद की स्थाई समिति ने भी ओआरओपी योजना को लागू करने की सिफारिश की थी।
सितंबर, २०१३ में ओआरओपी मामले में नरेंद्र मोदी का प्रवेश होता है। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार मोदी ने वादा किया कि अगर वे सत्ता में आएंगे तो ओआरओपी योजना को तत्काल लागू करेंगे। उस समय केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा यानी यूपीए की सरकार थी और मनमोहन सिंह इसके मुखिया थे। कांग्रेस इस तरह के मामलों पर काफी सकारात्मक रहती भी है। इसलिए आम चुनावों से पहले फरवरी, २०१४ में यूपीए सरकार ने ओआरओपी योजना को लागू करने का पैâसला किया और इस मद में ५०० करोड़ रुपए के बजट का आवंटन भी कर दिया। आम चुनावों में सत्ता परिवर्तन हो गया। मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार चली गई और मई में मोदी ने एनडीए सरकार की कमान संभाली। जुलाई २०१४ में एनडीए सरकार ने इस मद में १००० करोड़ के बजट का प्रावधान किया।
पूर्व सैनिकों में खुशी की लहर दौड़ गई क्योंकि मोदी सरकार ने रक्षा बलों के कार्मिकों, पारिवारिक पेंशनभोगियों के लिए ओआरओपी योजना को लागू करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया था। १ जुलाई, २०१४ से पेंशन में पुर्न निरीक्षण के लिए ७ नवंबर, २०१५ को नीति पत्र जारी किया। उक्त नीति पत्र में यह उल्लेख किया गया था कि भविष्य में पेंशन हर पांच वर्ष में फिर से निर्धारित की जाएगी, लेकिन अपनी आदत के मुताबिक सरकार द्वारा इसे लागू नहीं किया गया। इसका मूल कारण बस यही है कि मोदी सरकार लफ्फाजी में यकीन करती है, काम करने में नहीं। अगर वो वादे पूरा करके दिखाए तो कहां की मोदी सरकार! उसे चाहे जितना फटकारो, वो सुनेगी नहीं। चाहे जनता फटकारे या सुप्रीम कोर्ट। फरवरी २०१५ में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को बुरी तरह से फटकारते हुए तीन महीने के भीतर ओआरओपी को लागू करने का आदेश दिया था।
इसके बाद समय बीतता गया। सरकार बयान पर बयान देती रही। कुछ काम भी हुआ। दिसंबर २०२२ में हुई वैâबिनेट की बैठक में मोदी सरकार द्वारा ओआरओपी में संशोधन को मंजूरी दे दी गई। बैठक के बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने बताया कि इसका लाभ पेंशनधारकों के साथ ही युद्ध में शहीद होनेवाले जवानों की विधवाओं एवं दिव्यांग पेंशनधारकों को भी मिलेगा। उन्होंने बताया कि इससे २५ लाख पेंशनभोगियों को इसका लाभ मिलेगा और सरकार पर अतिरिक्त लगभग ८,५०० करोड़ रुपए का भार पड़ेगा। इस योजना के तहत पेंशन में संशोधन से ३० जून, २०१९ तक सेवानिवृत्त होनेवाले सैनिकों को इसका फायदा होगा। हालांकि, संशोधन में १ जुलाई, २०१४ से समय से पहले सेवानिवृत्त होनेवालों को शामिल नहीं किया गया। इसके बाद सरकार ने जनवरी २०२३ में ओआरओपी के दूसरे अध्याय की अधिसूचना जारी कर दी। इस अधिसूचना के बाद उससे जवान से लेकर जूनियर कमांडिंग अफसर-जेसीओ तक के सेवानिवृत्त सैनिकों में रोष व्याप्त हो गया। फिर पूर्व सैनिकों ने जंतर-मंतर पर धरना देने का पैâसला किया, जो एक साल बाद आज भी जारी है। पूर्व सैनिकों का यह भी कहना है कि १ जनवरी, १९७३ से पहले जवानों और जेसीओ को वेतन का ७० फीसदी पेंशन के रूप में मिलता था, उसे फिर से लागू किया जाए। उस वक्त सामान्य सरकारी अधिकारियों को उनके वेतन की ५० फीसदी रकम बतौर पेंशन मिलती थी और इसे बाद में ५० फीसदी कर दिया गया, जबकि सैनिकों की पेंशन वेतन के ७० फीसदी से घटाकर ५० फीसदी कर दी गई।
कहते हैं कि सेना कमजोर रहेगी तो देश कमजोर रहेगा। वैसे तो मोदी जी देशप्रेम की बड़ी-बड़ी डींगें हांकते हैं लेकिन आम आदमी उनकी असलियत से परिचित है। आम आदमी अच्छी तरह से जानता है कि मोदी जी देश प्रेम का झूठा दिखावा करते हैं। तभी तो उन्होंने वन रैंक वन पेंशन-ओआरओपी को वन रैंक हंड्रेड पेंशन-ओआरएचपी कर दिया। इतना ही नहीं, पूर्व सैनिकों को पेंशन का एरियर भी पूरा नहीं मिल पाया है। लेकिन मोदी झूठ (भक्त इसी को मोदी मैजिक कहते हैं) बदस्तूर जारी है। एक बार मोदी जी ने कहा था कि केंद्र सरकार ने ओआरओपी के तहत पूर्व सैनिकों को ३५ हजार करोड़ रुपए वितरित कर चुकी है। कुछ दिन बाद उनका शातिर दिमाग इस आंकड़े को दोगुना करके ७० हजार करोड़ रुपए बना देता है। फिर मोदी की गारंटी आते ही ओआरओपी की राशि ७० हजार करोड़ से बढ़कर १ लाख करोड़ रुपए पर पहुंच जाती है। ये आंकड़े हमें एक बड़े घोटाले की तरफ ले जाते हैं। दरअसल, इन आंकड़ों में ही घोटाला छिपा है। ओआरओपी के मद में २०१४ में कुल ८,३०० करोड़ रुपए का खर्च होनेवाला था, जबकि २०१५ में सरकार ने इसके लिए ५,३०० करोड़ रुपए का प्रावधान किया था। ये रकम २०१९ में १७ हजार करोड़ रुपए हुई और आज की तारीख में यानी कि सन २०२४ में इस रकम को २३ हजार करोड़ रुपए होना चाहिए, तो फिर मोदी सरकार द्वारा १ लाख करोड़ रुपए वैâसे और किसको वितरित किए गए? बाकी के तकरीबन ८० हजार करोड़ रुपए कहां गए? यही तो घोटाला है। जो मोदी की लफ्फाजी के चलते उजागर हुआ है।
(लेखक तीन दशक से पत्रिकारिता में सक्रिय हैं और ११ पुस्तकों का लेखन-संपादन कर चुके वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं।)