राजेश विक्रांत
मुंबई
कहते हैं कि इतिहास का सबसे बड़ा सबक यही है कि हम इतिहास से कोई सबक नहीं लेते। एनडीए सरकार का इतिहास रहा है कि उसने इतिहास से सबक लेने की बजाय इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा है साथ ही परंपरा, रीति-रिवाज, सामाजिक चलन, राजनीतिक शुचिता, संसदीय नैतिकता से बार-बार खिलवाड़ किया है। लोकसभा स्पीकर पद के सवाल पर देश में बीते ७२ साल से चली आ रही परंपरा टूट गई है। विपक्षी गठबंधन-इंडिया ने उपाध्यक्ष पद नहीं मिलने पर अध्यक्ष पद के लिए के. सुरेश को मैदान में उतारा था, जबकि भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए ने इस मुद्दे पर विपक्ष से समझौते का मूड नहीं दिखाया और देश के संसदीय इतिहास में दशकों की परंपरा तोड़ दी है। लोकसभा स्पीकर का चुनाव ऐसा ही था। ये सही है कि ओम बिरला स्पीकर पद पर विराजमान हो गए हैं। विपक्ष के उम्मीदवार के. सुरेश नहीं जीत पाए। ऐसा होना ही था क्योंकि संख्या बल एनडीए के पास था, लेकिन बात परंपरा, शुचिता व नैतिकता के पालन की है, जो कि एनडीए सरकार ने नहीं किया।
२०१४ से एनडीए जो काम कर रहा है, उसमें कई बार देश तोड़ने की क्रिया की झलक मिली है और परंपराएं तो कई बार तोड़ी गई हैं। जबकि परंपरा हमें एक व्यवस्थित मार्ग (दिशा) प्रदान करती है, जिसे कोई भी आसानी से नहीं बना सकता। किसी भी परंपरा का निर्माण एक दिन या एक साल में नहीं हो जाता। इसके निर्माण या बनने में सदियां लगती हैं। परंपरा को हमारे व्यवहार का तरीका कहा जाता है। समाज में प्रचलित विचारों, रूढ़ियों, मूल्यों, विश्वासों, धर्मों, रीति-रिवाजों आदि के संयुक्त रूप को मोटे तौर पर परंपरा कहा जा सकता है। इस प्रकार, परंपरा सामाजिक विरासत (प्रथाओं, रूढ़ियों, आदतों, विश्वासों, रीति-रिवाजों, धर्मों, कानूनों आदि) का वह सारहीन पक्ष है, जो हमारे व्यवहार के स्वीकृत तरीकों को दर्शाता है और जिसकी निरंतरता पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण की प्रक्रिया द्वारा बनाए रखी जाती है। लेकिन एनडीए सरकार के लिए ये शब्द फालतू के हैं। किताबी शब्द हैं। उसे बोलबचन में अफवाह पैâलाने में आनंद आता है और अब तक जो देखने में आया है, उसके मुताबिक ये कहा जा सकता है कि एनडीए सरकार परंपरा, नैतिकता की बजाय तानाशाही में यकीन करती है।
ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि हमारे देश में विपक्ष को अमूमन सहयोगी और लोकतंत्र का रक्षक का महत्व प्राप्त है, लेकिन एनडीए सरकार ने इस परंपरा को भी पलीता लगाया है। उसकी नजर में विपक्ष सिर्फ विरोधी है। दुश्मन है। उनसे चर्चा करना, किसी मुद्दे पर बातचीत करना या सहमति दर्शाना गुनाह है। इसी के कारण एनडीए सरकार ने स्पीकर के चुनाव पर विपक्ष से कोई गंभीर बात की, हां दिखावा भरपूर किया। आमतौर पर विपक्ष को लोकसभा का उपाध्यक्ष पद देने की परंपरा है। आजादी के बाद से अब तक लोकसभा स्पीकर और उपाध्यक्ष का चयन सर्वसम्मति से होता रहा है। स्पीकर का पद सत्ताधारी दल और उपाध्यक्ष का पद विपक्ष के पास रहता है। पर एनडीए सरकार ने संसदीय परंपरा का उल्लंघन करते हुए १६ वीं तथा १७ वीं लोकसभा में विपक्ष को उपाध्यक्ष पद दिया ही नहीं था। १६ वीं लोकसभा में एनडीए ने अपने सहयोगी दल एआईएमडीएमके थंबीदुरई को उपाध्यक्ष बनाया, जबकि १७ वीं लोकसभा में किसी को उपाध्यक्ष बनाया ही नहीं।
आजादी के बाद से ये सिर्फ तीसरा मौका था, जब स्पीकर के लिए चुनाव करवाना पड़ा, अन्यथा ये मुद्दा सहमति से हल करने की एक आम परंपरा है। १९५२ में स्पीकर के लिए पहली बार मतदान कराया गया, उसमें जीवी मावलंकर ने शंकर मोरे को हराया। जीवी मावलंकर को ३९४ मत मिले, जबकि शंकर मोरे को ५५ मत हासिल हुए। १९७६ में बी आर भगत का मुकाबला जगन्नाथ राव जोशी से था, जिसमें भगत को ३४४ मत मिले, जोशी को सिर्फ ५८ मत हासिल हुए।
एनडीए सरकार अब तक अनेक परंपराएं तोड़ चुकी है। इस बार भी उसने यही किया, जबकि लोकसभा स्पीकर का चुनाव पक्ष और विपक्ष, दोनों के लिए ही अहम है। भाजपा की रणनीति जहां स्पीकर चुनाव के जरिए यह संदेश देने की थी कि एनडीए के सभी घटक दल मजबूती से साथ हैं और गठबंधन में किसी तरह का कोई विरोधाभास नहीं है। भाजपा ३०० के साथ इसमें कामयाब भी हो गई, वहीं विपक्ष की रणनीति यह थी कि स्पीकर चुनाव के बहाने सरकार को उपाध्यक्ष का पद उसे देने के लिए मजबूर किया जाए, विपक्ष इसमें नाकामयाब रहा। लेकिन विपक्ष करे तो क्या करे जब सत्ताधारी दल तानाशाही पर ही उतारू हो। अब तो हम सबकी जिम्मेदारी बनती है कि हम वैâसे भी करके देश को टूटने से बचाएं।