मुख्यपृष्ठस्तंभराजधानी लाइव : ‘भारत रत्न’ देकर वास्तविक सम्मान से दूर रखना?

राजधानी लाइव : ‘भारत रत्न’ देकर वास्तविक सम्मान से दूर रखना?

डॉ. रमेश ठाकुर नई दिल्ली

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भाजपा के कद्दावर नेता एलके आडवाणी को आनन-फानन में ‘भारत रत्न’ देने की घोषणा करना और बिहार के मुख्यंमत्री नीतिश कुमार को दोबारा अपने साथ जोड़ना, ये दोनों घटनाएं सामान्य नहीं हैं। दोनों के गर्भ में बहुत कुछ छिपा है। अव्वल तो दोनों के पीछे एक ऐसा डर छिपा था, जिसकी तस्वीर प्रधानमंत्री को साफ दिखाई देने लगी थी। अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में पूर्व उपप्रधानमंत्री आडवाणी को नहीं बुलाने पर प्रधानमंत्री खुद भाजपाइयों के निशाने पर आ गए थे। यहां तक कि आरएसएस के भी कई नेता उनसे नाखुश थे। सभी की नाराजगी को दूर करने के लिए ही प्रधानमंत्री ने आडवाणी को भारत रत्न देने का सियासी पासा फेंका। वरना, अगर आडवाणी को ‘भारत रत्न’ देना ही था तो कर्पूरी ठाकुर के साथ ही उनके नाम की भी घोषणा हो जाती। हालांकि, ये उनकी ऐसी चतुर सियासी चालाकी है, जिसे देशवासियों ने करीब से देखा है।
नीतिश कुमार को दोबारा जोड़ने की घटना भी कम नहीं है? राम मंदिर लहर के बाद भी भाजपा को कहीं न कहीं लगने लगा था कि लोकसभा चुनाव में उनका गणित गड़बड़ाया हुआ है। सबसे बड़ा डर तो ‘इंडिया गठबंधन’ की दिनों-दिन मजबूत होती स्थिति से था। कई राज्य ऐसे हैं जो अभी भी भाजपा की पकड़ से दूर हैं, जिनमें बिहार भी है इसलिए भाजपाइयों ने सबसे पहले इंडिया गठबंधन के मजबूत पिलर कहे जाने वाले नीतिश कुमार को तोड़ना उचित समझा। पर्दे के पीछे इस मिशन का जिम्मा खुद प्रधानमंत्री ने संभाला। उन्होंने अपने कुछ विश्वसनीय नेताओं को नीतिश कुमार के पीछे लगाया। सबसे बड़ी भूमिका तो लोकसभा के उपसभापति हरवंश ने निभाई। हरवंश ने ही नीतिश कुमार को सबसे पहले एनडीए में दोबारा आने का ऑफर दिया। उनके ऑफर पर नीतिश कुमार ने एकाध दिन मंथन किया, आखिरकार बाद में उन्होंने एनडीए में जाने का निर्णय लेकर पलटूराम नाम पर मुहर लगा दी। लेकिन नीतिश कुमार के संबंध में कहा जाता है कि वो राजनीतिक रूप से बेवफा हैं। उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि वो कभी भी किसी से भी बेवफाई कर सकते हैं। चुनावी पंड़ितों का तर्क है कि हो सकता है उनकी ये सियासी बेवफाई अंतिम साबित हो! क्योंकि भाजपा अंदरखाने उन्हें पूरी तरह से पैदल करने का मन बना चुकी है। इसलिए की पूर्व में उन्होंने प्रधानमंत्री के बारे में बहुत कुछ अनाप-शनाप कहा था। भाजपा की प्लानिंग है कि एनडीए में बुलाकर उनसे एक-एक करके बदला लेंगे।
खैर, जहां तक आडवाणी को ‘भारत रत्न’ देने की बात है, तो सभी जानते हैं कि उन्हें ये सम्मान किन परिस्थितियों में दिया गया। सम्मान की आड़ में प्रधानमंत्री अपने पर लगे बड़े आरोपों को धोना चाहते हैं। प्रधानमंत्री पर आडवाणी को सक्रिय राजनीति से बेदखल करने का आरोप तो बहुत पहले से लग रहा था, पर अयोध्या के कार्यक्रम में भी उन्हें न बुलाकर वे कइयों के निशाने पर आ गए हैं। सियासत के चतुर खिलाड़ी बन चुके प्रधानमंत्री शायद भविष्य के उन संकेतों को भांप चुके थे, जिससे उनको भारी नुकसान होने की संभावनाएं थीं। उन्हें राजनीतिक शर्मिंदगी उठानी पड़े, ऐसा शायद वो कभी बर्दाश्त नहीं कर पाएं। चुनावी पंडित अब मानते हैं कि भारत रत्न देने के बाद भी आडवाणी और मोदी के बीच सियासत का छत्तीस का आंकड़ा हमेशा बरकरार रहेगा। आडवाणी के सियायत भविष्य पर संकट के बादल २०१३ से मंडरा गए थे। जब गोवा के पार्टी सम्मेलन में नरेंद्र मोदी को पार्टी का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया गया। आडवाणी को तब उम्मीद थी कि पीएम उम्मीदवार के लिए उनका नाम आगे बढ़ेगा। लेकिन वैसा हुआ नहीं? आडवाणी की जगह नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा हुई। शायद तब उन नेताओं की तरफ से उन्हें एक दुखद जवाबी उपहार था, जिनकी पूरी जमात उनके संरक्षण में पली और बड़ी हुई थी।
विपक्षी नेता भी मानते हैं कि आडवाणी एक ऐसे नेता हैं, जिन्होंने हजारों मील रथ पर चलकर पार्टी को प्रासंगिक बनाया, पर नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो सबसे पहले उन्होंने आडवाणी को किनारे लगाया। कोई चुनाव नहीं लड़वाया, न मंत्रिमंडल में शामिल किया और न ही कोई अन्य पद पर बैठाया, बल्कि उन्हें सीधे मार्गदर्शक मंडल में ही भेज दिया। तब भी नरेंद्र मोदी के उस कदम की लोगों ने जमकर आलोचनाएं की। इन सभी आलोचनाओं का असर मौजूदा लोकसभा चुनाव परिणाम पर न पड़े इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने आडवाणी को ‘भारत रत्न’ देने का सियासी दांव खेला। सोचा इससे आडवाणी का गुस्सा भी कम हो जाएगा और उनके चाहने वालों की नाराजगी भी दूर हो जाएगी। लेकिन धनुष से छूटा तीर वापस नहीं आता! फिलहाल, आडवाणी को देश के सबसे बड़े सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करने के एलान को उनके समर्थक उनकी दशकों की मेहनत का ‘न्यायोचित सम्मान’ बता रहे हैं। बताना भी चाहिए। निश्चित रूप से आडवाणी इस सम्मान के हकदार हैं, लेकिन यहां एक सवाल जरूर खड़ा होता है कि आडवाणी को सरकारी सम्मान तो मिला, पर वास्तविक सम्मान नहीं मिला, जिसके वे मुकम्मल हकदार हैं।
जहां तक आडवाणी को ‘भारत रत्न’ देने की बात है, तो सभी जानते हैं कि उन्हें ये सम्मान किन परिस्थितियों में दिया गया। सम्मान की आड़ में प्रधानमंत्री अपने पर लगे बड़े आरोपों को धोना चाहते हैं। प्रधानमंत्री पर आडवाणी को सक्रिय राजनीति से बेदखल करने का आरोप तो बहुत पहले से लग रहा था, पर अयोध्या के कार्यक्रम में भी उन्हें न बुलाकर वे कइयों के निशाने पर आ गए हैं। सियासत के चतुर खिलाड़ी बन चुके प्रधानमंत्री शायद भविष्य के उन संकेतों को भांप चुके थे, जिससे उनको भारी नुकसान होने की संभावनाएं थीं। उन्हें राजनीतिक शर्मिंदगी उठानी पड़े, ऐसा शायद वो कभी बर्दाश्त नहीं कर पाएं। चुनावी पंडित अब मानते हैं कि भारत रत्न देने के बाद भी आडवाणी और मोदी के बीच सियासत का छत्तीस का आंकड़ा हमेशा बरकरार रहेगा।
(लेखक राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान, भारत सरकार के सदस्य, राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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