डॉ. रमेश ठाकुर नई दिल्ली
लोकसभा के प्रथम चरण के मतदान में मात्र तीन-चार दिन शेष हैं। चुनाव आयोग की तैयारियां तकरीबन पूरी हैं और राजनीतिक दल भी तैयार हैं? पर मतदाताओं में उतना उत्साह उमंग नहीं दिखा रहा, जितना की पूर्व के चुनावों में देखने को मिलता था। ऐसा प्रतीत होता है कि नेताओं के झूठे चुनावी जुमले और लफ्फाजियों ने वोटरों के भीतर उदासीनता कूट-कूट कर भर दी है। मौजूदा चुनाव में भाजपा का शोर दिख पड़ता है, अन्य दल इस बार काफी पिछड़े दिखाई देते हैं। इस बदली हुई तस्वीर के पीछे कुछ वाजिब कारण भी हैं, कई विपक्षी दलों की केंद्र सरकार ने कमर तोड़कर उन्हें मैदान से हटाने की कोशिश की है। कांग्रेस के खाते प्रâीज हैं, जिससे वह चुनाव प्रचार तक नहीं कर पा रही, वहीं आम आदमी पार्टी जो सीधे प्रधानमंत्री की आंखों में चुभती थी, उसकी हर कड़ी कमजोर कर दी है। पार्टी के शीर्ष नेता कथित शराब घोटाले में जेल में बंद हैं। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में आम आदमी पार्टी ने अपने उम्मीदवार उतारने से मना कर दिया है, पार्टी का समर्थन इंडिया गठबंधन के उम्मीदवारों को दे दिया गया है।
दरअसल, भाजपा यही तो चाहती थी कि विपक्षी दल मौजूदा लोकसभा चुनाव में सक्रिय न हों? उनके न होने से उनकी लड़ाई एकदम आसान रहे, लेकिन जनता का क्या, जो उनकी खुराफाती हरकतों को देख रही है। प्रधानमंत्री चुनाव जीतने के लिए हर किस्म के हथकंडे अपना रहे हैं। गैर जरूरी मुद्दों को भी हवा देने से नहीं चूक रहे। अब देखिए न तेजस्वी के मछली खाने वाली तस्वीर को भी चुनावी मुद्दे में तब्दील कर दिया है, जिस पर जनता खुद बोलने लगी है कि ऐसे मुद्दों को प्रधानमंत्री द्वारा उठाना शोभा नहीं देता? जबकि सच ये है कि भाजपा से जुड़े व्यापारी नवरात्रों में भी प्रतिबंधित जानवरों के मांस की ब्रिकी करते हैं। गोवा में उनकी एक बड़ी नेत्री की बेटी अपने रेस्टोरेंट में खुलेआम बीफ परोसती हैं। लोकसभा चुनाव सबसे बड़ा चुनावी समर माना जाता है, जिसमें प्रमुख दलों को ये बताना होता है कि उनका एजेंडा क्या होगा? भविष्य की प्राथमिकताएं क्या रहेंगी? लेकिन अब उनकी जगह ४०० पार का नारा बुलंद किया जाता है, जबकि भाजपा कभी शाइनिंग इंडिया जैसे नारे के साथ लोकसभा चुनाव में ताल ठोका करती थी।
नई किस्म की भाजपा अब प्रत्येक चुनावों में चाहे विधानसभा के हों या लोकसभा के, सभी में सीटें जीतने का टारगेट बनाती है। पिछले १३ चुनाव ऐसे बीते हैं, जिनमें इन्होंने ऐसे ही नारे निर्धारित किए। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में २०० पार का टारगेट रखा था, पर सीटें लक्ष्य के आसपास भी नहीं पहुंचीं। बिहार, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी सीटों का टारगेट रखा गया था, जो कहीं भी पूरा नहीं हुआ? लोकसभा-२०२४ के पहले चरण के लिए प्रधानमंत्री ताबड़तोड़ चुनावी सभाएं कर रहे हैं। प्रत्येक चुनावी सभा में वे देश के किसी भी जरूरी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे। महंगाई, बेरोजगारी, सुरक्षा, शिक्षा, पर्यावरण आदि मसलों को छू तक नहीं रहे। वो सिर्फ पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार को कोसते हैं या फिर अपने कार्यकर्ताओं से ४०० पार के नारे को पूरा करने का आह्वान करते हैं। कमजोर सीटों पर उनका फोकस ज्यादा है, जैसे उत्तर प्रदेश की सबसे चर्चित पीलीभीत की सीट जहां से वरुण गांधी का टिकट कटने के बाद फंसी हुई दिख रही है। पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री वहां रैली करने पहुंचे। उस रैली में उन्होंने पीलीभीत की जनता को ये नहीं बताया कि आखिर वरुण गांधी का टिकट क्यों काटा गया? जबकि रैली में अधिकांश लोग यही सुनने के लिए पहुंचे थे, लेकिन प्रधानमंत्री वरुण गांधी के मसले पर कुछ नहीं बोले।
भाजपा इस दफे लफ्फाजी में कोई कसर नहीं छोड़ रही। चुनाव में युवाओं की घेराबंदी करने के लिए प्रधानमंत्री यूटयूबरों, इंटरनेट क्रिएटर्स और गेमरों को भी साधने में लगे हैं। पिछले सप्ताह देश के टॉप गेमरों से मिले। प्रधानमंत्री ने गेमरों से गेम्स के संबंध में लंबी बातचीत की और बाद में उनका वीडियो खुद अपने सोशल मीडिया पर डाला। इससे पहले वे दिल्ली के मंडपम में सोशल मीडिया के चर्चित क्रिएटर्स से मिले थे। फिर बारी आई यूट्यूबरों की तो उनसे भी प्रधानमंत्री ने मिलना मुनासिब समझा। दरअसल, इंटरनेट की ताकत को प्रधानमंत्री अच्छे से जानते हैं। देश के एक तिहाई लोग इंटरनेट से सीधा वास्ता रखते हैं, जिनमें युवाओं की बहुतायत सबसे अधिक है, किंतु यहीं से एक सवाल देश के लोग प्रधानमंत्री से करने लगे हैं कि जब प्रधानमंत्री के पास ऐसे लोगों से मिलने का वक्त है तो पहलवान बेटियों, देश के अन्नदाता व बेरोजगार युवाओं से क्यों नहीं मिलते? जबकि ये वर्ग उनसे मिलने के लिए धरना देते हैं और मजबूरी में आंदोलित भी होते हैं।
मणिपुर महीनों से जलता रहा, तब भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा। देशभर में नौकरी मांगने वाले युवाओं पर पुलिस लाठियां भांज रही है, उन तस्वीरों को देखकर भी प्रधानमंत्री विचलित नहीं होते। दरअसल, प्रधानमंत्री अपनी आलोचना सुनना कतई पसंद नहीं करते और उनके विरोध में उठनेवाली आवाजों को तो सिरे से नकार ही देते हैं। ऐसे मसलों पर प्रधानमंत्री की उदासीनता से लोग बेहद नाराज हैं। चुनावी सभाओं में उनके द्वारा कितनी भी लच्छेदार बातें क्यों न की जाएं, पर देशवासियों ने मन बनाया हुआ है कि उन्हें क्या करना है? मौजूदा चुनाव बहुत निर्णायक होने वाला है। संकेत मिलने लगे हैं कि देशवासी इस बार परिवर्तन को ध्यान में रखकर पोलिंग बूथों में पहुंचेंगे।
(लेखक राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान, भारत सरकार के सदस्य, राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
(उपरोक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। अखबार इससे सहमत हो यह जरूरी नहीं है।)