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पाठकों की कविताएं : बचपन का प्यार

इश्क वो बचपन का अब लौटाने आया हूं
बदल गए मुहब्बत, यार, प्यार ये समझाने आया हूं
एक दिलरुबा पर सबको ठुकराने आया हूं
दिल की सिमटी यादें बस जलाने आया हूं
बचपन तो कब के बीते यह बताने आया हूं
पचपन के बाद भी वो बचपन लौटने आया हूं
हमें चाहनेवाले हमारी भी चाहे ये शौक निभाया हूं
सच कहता हूं बस दिल भरने तक ही आजमाया हूं
मुहब्बत भी फरेब से कम नहीं खुद को भरमाया हूं
प्रेम किसी और से रिश्ता किसी और से बनाया हूं
चाहत, आहत और आफत में खुद को भुलाया हूं
कई रात जागकर मैं उन्हें सुकून की नींद दिलाया हूं
चार दिन की जिंदगी, फिर अंधेरी रात में उलझाया हूं
उलझे प्रेम पहलू को दूसरे की खातिर सुलझाया हूं
लेकिन उस सच्चे-अच्छे बचपन का प्यार न भुलाया हूं
हर वासंती बहार में अपने बचपन को अब भी जगाया हूं
– संजय सिंह ‘चंदन’

चापलूसों के खजाने
मक्खन-मलाई चमचों के
सारा काम नौकर के
ठूंस-ठूंस के तोंद फुलाना
गरम जेब है नौकर के
षड्यंत्र राज दरबारों में
हेर-फेर हैं नौकर के
यहां-वहां चापलूसों में
चलता है नौकर के
अपनी हां-हां करके बढ़ना
ढेर शब्द है नौकर के
आगे पीछे दौड़-दौड़ के
खुद का पेशा नौकर के
झूठी तहरीरे दिल में रखकर
गड़बड़ है कुछ नौकर के
खुद को सुलझाए न औरों को
यही हकीकत नौकर के
– मनोज कुमार, गोंडा,
उत्तर प्रदेश

नैतिक मूल्य
नैतिक मूल्य जगाना होगा
त्याग हमें अपनाना होगा
जाना तय है इस दुनिया से
तब तो प्यार लुटाना होगा
इस जीवन का अर्थ समझकर
मधुर मधुर कुछ गाना होगा
व्यर्थ बात जो हमें सताती
उससे पिंड छुड़ाना होगा
संयम वाली राह पकड़कर
जीवन सफल बनाना होगा
अंधेरे में किसी तरह से
दीपक नया जलाना होगा
सफर कठिन है फिर भी हमको
मंजिल तक तो जाना होगा
जब भी घेरे हमें निराशा
सोया ज्ञान जगाना होगा
समय यहां परिवर्तन लाता
मन को यह समझाना होगा
जब आए संघर्ष सामने
तब पौरुष दिखलाना होगा
शक्ति संतुलन के दर्शन को
आगे हमें बढ़ाना होगा
धीरज के रथ पर सवार हो
जौहर हमें दिखाना होगा
शांति हमारा मूलभाव है
उसका जश्न मनाना होगा
मान-प्रतिष्ठा के परचम को
जीवन में लहराता होगा
जाने से पहले हमको बस
इतना सा कर जाना होगा
नैतिक मूल्य जगाना होगा
त्याग हमें अपनाना होगा
– अन्वेषी

जब बदलना ही है
घटी रोशनी चिराग बदलो
धीमी पड़ रही आग बदलो
कर रहे स्वप्नों से खिलवाड़
अब निद्रा और जाग बदलो
युद्ध-गान का समय पास है
प्रणय-गीत और राग बदलो
थक गए जिसे सुनते-सुनते
अब सुख की इच्छा-मांग बदलो
असरहीन अब जूते-कालिख
कुछ और फेंको दाग बदलो
सब बदले पर भूख न बदली
अब दाल रोटी साग बदलो
घुस आए भीतर घर करके
बिच्छू गोजर व नाग बदलो
किसी दिन निगल लेंगे तुमको
मोह छोह और लाग बदलो
बदल गए जब मौसम सारे
पोथी पतरा पंचांग बदलो
– डॉ. एम.डी. सिंह

बहती है पुरवाई
माह फरवरी आतुर है मन
धरा प्रेम बरसाई
सुरभित गुलाब की पंखुड़ियां
शूल मध्य इठलाती
देख दृश्य पुलकित है कण-कण
कोयल गीत सुनाती
पात-पात तरुवर झूमे जब
संग बसंती आई
प्रणय गीत का भाव जगाती
कवियों की कविताएं
स्पर्श हृदय को करें शब्द ये
शृंगारित हो जाए
पग-पग जीवन उल्लास भरे
बहती है पुरवाई
पीले-पीले सरसों फूले
बृक्षारण महकाते
भंवरे, तितली मिलकर सारे
बैठ वहां हर्षाते
लगे झूलने बौर आम के
झूम उठे अमराई
रूप बसंती सज बैठी जस
दुल्हन नई नवेली
कभी सुहाने दृश्य दिखाती
रचती कभी पहेली
बंधे प्रीत में प्रियतम सारे
बजती है शहनाई
– प्रिया देवांगन ‘प्रियू’

प्रकृति का रूप
प्रकृति अपने गोद में
कितने रहस्य समेटे है
हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई
चारों इसके बेटे हैं
प्रकृति और उसके रहस्यों का
वर्णन करना इतना आसान नहीं
पर बच्चे हैं हम भी उसके
व्यक्तित्व से उसके अंजान नहीं
प्रकृति की कोई सीमा नहीं
वो तो असिमित है
उसका कोई अंत नहीं
वो तो अनंत है
असीमित और अनगिनत ज्ञान
अपने भीतर समेटे है
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र
चारों इसके बेटे हैं
शीश इसका ब्रह्मांड है
केश पूरी वन-संपदा
इसका उज्जवल ललाट संसार का
संपूर्ण हिम और हिम-प्रपात है
धुनषाकार भौंहें इसकी
इस दुनिया के हथियार हैं
पलकों का गिरना-उठना
बनाता दिन और रात है
प्रकृति के चमत्कारी नयन
संपूर्ण सृष्टि के जल समेटे हैं
हर जाति-धर्म के लोग
इस धरती मां के बेटे हैं
सूरज मांग का टीका
और माथे की बिंदी चांद है
पर्वतमालाएं इसका कंठहार
सारे पुष्प इसके श्रृंगार हैं
इसकी भाषा सारे अलंकार छंद
और संपूर्ण व्याकरण है
अनंत रहस्यमयी होते हुए भी
यह जीती जागती दर्पण है
इसके होंठों की लाली
सारे रस को समेटे है
हर छोटे-बड़े जीव-जंतु
इस ममतामयी मां के बेटे हैं
सारे सुर-संगीत, राग-ताल
इसकी चूड़ियों की खनक है
मदमस्त बहती पुरवाई
इसके गजरे की महक है
काले मेघ की रेखा
इसके नैनों के काजल हैं
इस ब्रह्मांड के ग्रह-नक्षत्र
इसकी पांवों की पायल हैं
सितारों से जड़े आकाश को
अपने तन पर लपेटे है
हर ग्रह-नक्षत्र के प्राणी
इस दिव्य मां के बेटे हैं
हर बदलते हुए मौसम
इसके अलग-अलग रूप हैं
इसकी मनमोहक चंचलता
सूरज की सुनहरी धूप है।।
सांसें हवा और क्रोध अग्नि है
इसकी शीतलता चांद की रोशनी
हंसी के रूप में बहार अनूप है
बिजली की अट्टाहास इसका रौद्र रुप है
इसके कई रूपों को तो
हम सभी ने देखा है
इस जगत के सभी प्राणी
इस पावन मां के बेटे हैं
– पूजा पांडे ‘गार्गी’

वृक्ष बचाओ
विश्व बचाओ
-उपवन को मानव तू
मत कर नाहक खल्लास,
ये ही तो मानव जीवन में
भरते सदा यहां उल्लास!
-डॉ. मुकेश गौतम, वरिष्ठ कवि

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