धर्म मनुष्य का मूलभ स्वभाव है।
धर्म कोई विशिष्ट परंपरा, संप्रदाय या दर्शनशास्त्र बिल्कुल नहीं है।
जो जैसा है उसको वैसा ही खोजने, पहचानने और जानने को “धर्म यात्रा” कह सकते हैं।
ईश्वर का स्वरूप और स्वभाव मनुष्य की आस्था और अनास्था से परे है।
धर्म अर्थात ‘धारियते इति धर्म:’ जिसने धारण कर रखा है, उसे ही धर्म कहा जाता है।
अर्थात् वह शक्ति जो हमारे शरीर को और पूरे विश्व को धारण किए हुए है, उसको जानना, पहचानना, अनुभव करना ही धर्म है।
धर्म का तात्पर्य है -“मैं कौन हूं? कौन है ईश्वर?” कौन है वह परम शक्ति? इसे अपनी खोज बनाएं।
कुछ ही लोगों के भीतर यह प्रश्न उठते हैं और वे निश्चय ही भाग्यशाली हैं।
तथा अज्ञानता की बेड़ियों को काटकर सच्चे सद्गुरु की मदद से ‘धर्म यात्रा’ पर निकल पड़ते हैं; और अपना जीवन ‘सार्थक’ व ‘धन्य’ करते हैं।
-आर.डी.अग्रवाल “प्रेमी”
मुंबई