मुख्यपृष्ठस्तंभजातिवाद से ऊपर उठकर भारतीयता और इंसानियत की पहचान बनाएं-भरतकुमार सोलंकी

जातिवाद से ऊपर उठकर भारतीयता और इंसानियत की पहचान बनाएं-भरतकुमार सोलंकी

बांग्लादेश में हिंदुओं की वर्तमान स्थिति केवल एक देश विशेष की समस्या नहीं हैं, बल्कि यह पूरे उपमहाद्वीप के लिए एक गंभीर चेतावनी हैं। वहां हिंसा का शिकार होनेवाले हिंदुओं को यह नहीं पूछा जा रहा कि वे ब्राह्मण हैं, राजपूत हैं, वैश्य हैं, या शूद्र। वहां केवल एक पहचान देखी जा रही हैं-वे हिंदू हैं। यह घटना हमें भारत में एक गहरा सवाल पूछने पर मजबूर करती हैं- क्या हम अब भी अपने भीतर जातीय और धार्मिक विभाजन में बंटे रह सकते हैं? या हमें अपनी सोच को इन सीमाओं से ऊपर उठाकर एक मजबूत राष्ट्रीय और वैश्विक पहचान बनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए?

भारत, जो “वसुधैव कुटुंबकम” की भूमि हैं, आज भी जाति और वर्ग के आधार पर बंटा हुआ है। जब हमारे पड़ोसी देश में हिंदुओं को केवल उनकी धार्मिक पहचान के कारण निशाना बनाया जा रहा है, तो यह जरूरी हो जाता है कि हम अपनी प्राथमिकताओं पर विचार करें। क्या जातिवाद और संकीर्ण सोच हमें इस तरह की चुनौतियों का सामना करने में कमजोर नहीं बना रहे? भारत की पहचान केवल जातियों और वर्गों के संग्रह से नहीं हो सकती; इसे इंसानियत, एकता और समर्पण के मूल्यों पर आधारित होना चाहिए।

लेकिन यह बदलाव कैसे संभव है? सबसे पहले, हमें अपनी सोच से जातीय और धार्मिक सीमाओं को मिटाना होगा। हमें समझना होगा कि जातिवाद न केवल हमारे समाज को विभाजित करता है, बल्कि हमारी राष्ट्रीय ताकत को भी कमजोर करता है। अगर भारत को वैश्विक मंच पर मजबूती से खड़ा होना है, तो हमें “भारतीय” के एकल और सार्वभौमिक लेबल को अपनाना होगा। यह तभी संभव होगा जब हम शिक्षा, सामाजिक संवाद और नीतियों के माध्यम से जातिवाद के खिलाफ एक समग्र अभियान चलाएं।

इसके साथ ही, यह भी जरूरी हैं कि हम अपनी धार्मिक पहचान को मानवता के व्यापक दायरे में प्रस्तुत करें। जब तक हम खुद को केवल “हिंदू,” “मुस्लिम,” या “ईसाई” के रूप में परिभाषित करेंगे, हम एक बड़े वैश्विक दृष्टिकोण को अपनाने में असफल रहेंगे। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि भारत को एक ऐसे देश के रूप में जाना जाए जो “वसुधैव कुटुंबकम” के आदर्श को जीता है?

हमें बांग्लादेश की स्थिति से सीखना चाहिए। भारत को एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना होगा जो जातीय और धार्मिक भेदभाव से परे हो। अगर हम भारत में जातिवाद को समाप्त करने और एकता के विचार को मजबूत करने में सफल होते हैं, तो यह संदेश न केवल हमारी सीमाओं के भीतर, बल्कि विश्व स्तर पर भी जाएगा। यह दुनिया को दिखाएगा कि भारत केवल विविधताओं का देश नहीं हैं, बल्कि वह स्थान हैं जहाँ विविधता में एकता की भावना सचमुच जी जाती हैं।

तो सवाल यह हैं—क्या हम इन पुराने बंधनों को तोड़ने और एक नई सोच अपनाने के लिए तैयार हैं? क्या हम जातिवाद से ऊपर उठकर एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं, जो हर भारतीय को एक समान अवसर और सम्मान प्रदान करे? और क्या हम इस भारतीयता को विश्व मंच पर इस तरह प्रस्तुत कर सकते हैं कि यह मानवता का उदाहरण बन सके? अगर हाँ, तो अब समय हैं कि हम अपने भीतर और अपने समाज में इस बदलाव को शुरू करें।

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