संजय राऊत
भारत में लोकतंत्र के गौरवशाली दिन खत्म हो गए हैं। एक समय भारतीय लोकतंत्र दुनिया में एक प्रकाशस्तंभ की तरह खड़ा था। पिछले दस वर्षों में दीपक बुझ गए। देश का लोकतंत्र अंधकार में चला गया। हालांकि, इस दौरान दक्षिण कोरिया जैसे देश में ‘मार्शल लॉ’ को धता बताते हुए लोकतंत्र की रक्षा के लिए जनता सड़कों पर उतर आई। कहीं तो लोकतंत्र की बाती जल रही है।
दुनियाभर में इस समय राजनीतिक उथल-पुथल जोर पकड़ रही है। उस उथल-पुथल का भारतीय जनमानस पर कोई प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं दिखती। भारतीय लोकतंत्र मूक-बधिर हो गया है। यह एक भयानक तस्वीर है कि भारत में लोकतंत्र को अपने ही लोगों से खतरा है। स्वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा की जिम्मेदारी जिन पर सबसे अधिक है, उनमें सर्वोच्च न्यायालय, संसद का स्थान महत्वपूर्ण है; लेकिन उन पर से भी भरोसा टूट गया है। ‘मीडिया’ तो ‘मोदी’मय हो गया है। मुख्य न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) धनंजय चंद्रचूड़ के व्यवहार से वह पूरी तरह से टूट गया है। सुप्रीम कोर्ट की प्रख्यात वकील इंदिरा जयसिंह ने क्रोधित होकर कहा, ‘‘इतिहास कभी नहीं भूलेगा कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने भारत की संकल्पना ‘Idea of India’ को कितनी क्षति पहुंचाई है।” इसी बीच मैंने शंकराचार्य नित्यानंद सरस्वती का एक आक्रोश भरा बयान पढ़ा। वे कहते हैं, ‘इस देश में क्या चल रहा है? अगर भारत में सचमुच निष्पक्ष और मजबूत न्यायपालिका होती तो प्रधानमंत्री मोदी और योगी आदित्यनाथ जेल में दिखाई देते।’ हालांकि हमारे देश में यह संभव नहीं है, लेकिन दुनिया के कई देशों में प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों के खिलाफ कार्रवाई की गई है, जिसका ताजा उदाहरण है दक्षिण कोरिया!
जनता का विद्रोह
दक्षिण कोरिया दुनिया के सबसे सम्मानित देशों में से एक है। आर्थिक रूप से सक्षम द. कोरिया एक आदर्श लोकतांत्रिक देश है, लेकिन वहां अचानक नाटकीय घटनाएं हुईं और राष्ट्रपति यून सुक योल ने मार्शल लॉ की घोषणा कर दी। राजनीतिक रूप से असुरक्षित महसूस करते हुए उन्होंने लोगों पर प्रतिबंध लगा दिए। मार्शल लॉ की घोषणा होते ही शुरुआत में जनता की ओर से हल्का विरोध हुआ। विपक्षी दल ने बड़े संयम के साथ जनआंदोलन शुरू किया और एक दिन मार्शल लॉ का उल्लंघन कर कोरियन जनता लाखों की संख्या में सड़कों पर उतर आई। जब सब कुछ ठीक चल रहा था तो राष्ट्रपति को मार्शल लॉ के जरिए सारे अधिकार हाथ में लेने की जरूरत क्या, ये सवाल उठने लगा। सेंसरशिप को धता बताते हुए वहां की ‘मीडिया’ भी जन आंदोलन में शामिल हो गई। आखिरकार राष्ट्रपति यून सुक योल को मार्शल लॉ वापस लेना पड़ा। मार्शल लॉ लागू किया गया, क्योंकि देशांतर्गत राजनीति और व्यवस्था में गिरावट के संकेत दिखाई दे रहे थे। आपातकाल जैसी स्थिति और विपक्ष द्वारा देश को अस्थिर करने के डर से कोरियाई राष्ट्रपति ने मार्शल लॉ लगाया, लेकिन लोगों ने निर्भयतापूर्वक सड़कों पर उतर कर इसका विरोध किया। उस दबाव में राष्ट्रपति ने इस्तीफा दे दिया। लेकिन इस्तीफे के बाद ही सियोल मेट्रोपॉलिटन पुलिस और नेशनल असेंबली पुलिस गार्ड्स ने राष्ट्रपति कार्यालय पर छापा मारा, जब राष्ट्रपति योल अपने कार्यालय में थे। मार्शल लॉ लागू करने की जांच शुरू की गई और योल को कैद कर लिया गया। उसी समय, भयभीत पूर्व रक्षामंत्री किम ने पुलिस हिरासत में आत्महत्या का प्रयास किया। (आत्महत्या के लिए उन्होंने अंडरवियर का इस्तेमाल किया।) कोरिया के लोग लोकतंत्र को बचाने के लिए सड़कों पर उतर आए। मीडिया और पुलिस ने भी जनता का साथ दिया। मार्शल लॉ के बाद भी वहां का प्रशासन और यंत्रणा दबाव में नहीं आई। दक्षिण कोरिया ने दिखा दिया कि, वहां की लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाएं कितनी मजबूत हैं। इन संस्थाओं के प्रभाव के कारण वे जमीन में गहराई तक जड़ें जमाए हुए हैं। इसीलिए अपने नेता के गलत निर्णय के खिलाफ जागरूक होकर उन सभी ने देश की रक्षा की। दक्षिण कोरिया ने लोकतंत्र की लाज रखी, जबकि भारत में इसके विपरीत हो रहा है।
अघोषित मार्शल लॉ
दक्षिण कोरिया के तत्कालीन राष्ट्रपति (पार्क ग्यून-हे) २०१७ से जेल में हैं और भ्रष्टाचार के आरोप में आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं। उन पर राष्ट्रपति पद का दुरुपयोग करने और अपने उद्योगपति मित्रों की मदद करने का आरोप था। कोरिया में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक राष्ट्रपति जेल में, तो दूसरे राष्ट्रपति पर मार्शल लॉ लगाने को लेकर पुलिस ने छापा मारा। संसद में महाभियोग चलाकर उन्हें हटा दिया गया। भारत में पिछले पांच-दस वर्षों से अघोषित मार्शल लॉ लगा है और उद्योगपति मित्रों पर सरकारी संपत्ति की खैरात लुटाई जा रही है; लेकिन उस खैरात पर सवाल पूछना भारत में अपराध हो गया है। महाराष्ट्र समेत देशभर के चुनाव में मतदाताओं के साथ धोखा हुआ। हमारे वोट भाजपा ने चुरा लिए इसलिए लोग सड़कों पर उतर आए, ऐसे हर गांव में धारा १४४ लगाकर विरोध को कुचल दिया गया। भारत में लोकतंत्र की हत्या हो रही है। इसी दौरान दक्षिण कोरिया जैसे देश में लोकतंत्र की प्रतिष्ठा बढ़ानेवाली घटनाएं घटीं।
सीरिया में अराजकता
सीरिया नामक देश में गृहयुद्ध छिड़ गया और राष्ट्रपति बशर अल असद को देश छोड़कर भागना पड़ा। विद्रोहियों ने असद परिवार के ५० साल के शासन को उखाड़ फेंका। धैर्य समाप्त हो गया और लोगों ने जीवन-मृत्यु की परवाह किए बिना विद्रोह कर दिया। ५० साल तक असद परिवार ने देश को जेल बना दिया था। लोगों ने उस जेल को तोड़ दिया। असद ने भी सीरिया में मार्शल लॉ का आह्वान किया था। अंतत: लोगों ने असद को ही भगा दिया। दुनिया के कई छोटे देशों में आम जनता लोकतंत्र की रक्षा के लिए बलिदान देती नजर आती है और यह सुखद तस्वीर है कि वहां का प्रशासन खुलकर लोगों की मदद करता है। ईरान, अफगानिस्तान, इराक, रूस जैसे देशों में लोकतंत्र नष्ट हो गया। वहां विपक्ष की आवाज को दबा दिया गया। भारत में विरोधियों को झूठे आरोपों में फंसाकर जेल में डाल दिया जाता है। इसी दौरान कोरिया, सीरिया में जनता तानाशाही के खिलाफ विद्रोह कर देती है। भारत के लोकतंत्र ने एक समय प्रकाशस्तंभ की तरह काम किया। दुनिया को रोशनी और मार्ग दिखाया। आज जिसके हाथ में ‘ईवीएम’, उसका लोकतंत्र, ये तस्वीर भारत में है। सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं ‘दुम’ दबाए सरकारी दर पर बैठी हैं। लोकतंत्र के मामले में भारत कंगाल हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने (१२ दिसंबर) एक आर-पार टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा, ‘‘एक जज को संन्यासी की तरह जीना चाहिए और घोड़े की तरह काम करना चाहिए। एक न्यायिक अधिकारी को बहुत त्याग करना पड़ता है!’’
अब त्याग जैसे शब्द का संदर्भ बदल गया है। बताया जा रहा है कि महाराष्ट्र के सियासी उठापटक का फैसला सुनाने के लिए ‘सु.को.’ के न्यायिक अधिकारी ने इतना त्याग किया कि उनके बेटे का लंदन में ३०० करोड़ का ‘विला’ बन गया।
दक्षिण कोरिया की जुझारू जनता, निष्पक्ष पुलिस, न्याय अधिकारी और उनकी संसद को सलाम! भारत में लोकतंत्र की धज्जियां उड़ने के दौरान कोरिया ने लोकतंत्र की लाज रख ली!!