संजय राऊत -कार्यकारी संपादक
सार्वजनिक गणेशोत्सव अवश्य होना चाहिए, लेकिन उसमें राजनीतिक हेर-फेर और पैसों का इस्तेमाल होना चिंताजनक है। लालबाग के राजा को २० किलो सोने का मुकुट चढ़ाया गया। उसी महाराष्ट्र में आदिवासी बच्चे इलाज के अभाव में मरते हैं और उनके शवों को कंधे पर लादकर ले जाना पड़ता है। ये तस्वीर क्या कहती है?
भगवान और धर्म के नाम पर चल रही फिजूलखर्ची पर अब चर्चा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि इस अपव्यय को अब राजाश्रय प्राप्त हो गया है। अनंत अंबानी ने मुंबई स्थित लालबाग के राजा को २० किलो सोने का मुकुट चढ़ाया और इसकी खबर सर्वत्र प्रकाशित हुई। मजदूरों की नगरी में मजदूरों द्वारा स्थापित गणपति १७ करोड़ रुपए के सोने का मुकुट पहनकर विराजमान हैं। जिस नगर से गरीब और मजदूर पूरी तरह से हदपार हो गए, उस परेल-शिवडी इलाके में भव्य टॉवर्स खड़े हो गए और श्रमिक मराठी माणुस वहां से चला गया, लेकिन मजदूरों द्वारा स्थापित गणपति उन ऊंचे टॉवर्स की तरह वैभवशाली और समृद्ध होते दिखाई दे रहे हैं। इस बार लालबाग का राजा के पास आने वाले भक्तों का स्वागत अनंत अंबानी की ओर से हुआ, इस आशय के बैनर वहां दिखाई दिए। पुणे में गणेशोत्सव की शुरुआत लोकमान्य तिलक ने की थी। लेकिन एक भक्त ने बताया कि अब इसे पुनित बालन उत्सव के रूप में मनाया जाता है। भगवान को पैसों की जरूरत नहीं होती, लेकिन उनके अमीर भक्त भगवान को भी पैसों में तौलते हैं और उस भगवान के सामने आम लोगों की लंबी कतारें लग जाती हैं। उन सामान्य लोगों की समस्याएं कभी हल नहीं होतीं, लेकिन धर्म का नशा समस्याओं को मात दे देता है। ये हमारे धर्म में चलता ही रहता है। सभी सार्वजनिक उत्सवों की वित्तीय बागडोर अब राजनेताओं, बिल्डरों, व्यापारियों के हाथों में आ गई है। ये तस्वीर क्या कहती है?
सुवर्ण मुकुट
लालबाग के राजा के चरणों में १७ करोड़ का स्वर्ण मुकुट चढ़ा, जिससे भगवान का तेज और वैभव चमक उठा। दानदाता भी संतुष्ट हुए, लेकिन राजा की प्रजा की दशा क्या है, ये दर्शानेवाले महाराष्ट्र की दो खबरों पर नजर डालनी चाहिए। गडचिरौली की पिछले हफ्ते की एक तस्वीर ने ही महाराष्ट्र के पैरों तले जमीन खिसका दी। जिया अनिल मुजालदा (उम्र २) और रवीना कालू मुजालदा (उम्र ५) इन दो मासूमों की बुखार से मौत हो गई। भिंगारा से गोमाल तक आदिवासी गांवों को जोड़ने के लिए आज भी पक्की सड़क नहीं है। मरीजों को झोली बनाकर उसी से ले जाना पड़ता है। इन दोनों बच्चों के शवों को ले जाने के लिए माता-पिता को साधारण एंबुलेंस तक नहीं मिली और माता-पिता को दोनों बच्चों के शवों को कंधों पर लिए कीचड़ में पैदल १५ किलोमीटर का सफर तय करना पड़ा। सड़क नहीं, एंबुलेंस नहीं, स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं, ऐसे राज्य में भगवान के मस्तक पर २० किलो सोने का मुकुट! जिस राज्य में बच्चे बिना इलाज के मर जाते हैं और उन्हें ले जाने के लिए एंबुलेंस तक नहीं मिलती, उसी राज्य में भगवान को सोने से मढ़ा जाता है। सतपुड़ा के अति दुर्गम आदिवासी क्षेत्र गोमाल में डायरिया का प्रकोप फैला है। उससे एक १६ वर्षीया लड़की की हालत बिगड़ गई। तालुका के गांव में जाने के लिए सड़क नहीं है और एंबुलेंस मिलना भी संभव नहीं है। आखिरकार परिवार ने झोली बांधकर उसे जलगांव-जामोद के अस्पताल में ले जाने का फैसला किया, लेकिन रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। मृत लड़की का नाम सागरी हीरू बामन्या है। सड़क, दवा, इलाज, एंबुलेंस के अभाव में उसकी मौत हो गई और उसी राज्य में भगवान के सिर पर २० किलो सोने का मुकुट उद्योगपति चढ़ाते हैं। भगवान के लिए इतना सोना, वैभव तो ठीक है, लेकिन भगवान के बच्चे इलाज के अभाव में रोज मर रहे हैं, उसका क्या?
श्रीकृष्ण का मार्गदर्शन
भगवान श्रीकृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं, ‘‘पत्ती, फल, फूल, जल ऐसा (कुछ भी) जो मुझे भक्तिपूर्वक अर्पित करता है, वह पवित्र मन और भक्ति के साथ अर्पित किया हुआ मैं स्वीकार करता हूं!’’ भगवान को भक्ति से प्रेम है। कीमती वस्तु से नहीं। भक्तिपूर्वक दी गई छोटी-छोटी चीजें भी भगवान को प्रिय होती हैं। पत्ता, फूल, फल या जल भी श्रद्धापूर्वक अर्पित करेंगे तो ईश्वर के लिए वह प्रिय हो जाएगा। द्रौपदी ने वन में सब्जी का केवल एक पत्ता दिया था। सुदामा ने केवल मुट्ठीभर पोहा दिया था। पत्ता, फूल या फल महत्वपूर्ण नहीं होता। यह भक्ति व्यक्त करने का केवल प्रतीक है। कुछ मूर्तियां लकड़ी की बनी होती हैं। पुरी के जगन्नाथ की मूर्ति लकड़ी की है। पंढरपुर की विट्ठल की मूर्ति, नासिक के राम की मूर्ति पत्थर की है। भगवान लकड़ी या पत्थर के नहीं होते। वह जैसे हैं, वैसे ही भगवान होते हैं, लेकिन कुछ देवताओं को उद्योगपतियों, राजनेताओं, फिल्मी कलाकारों के कारण ग्लैमर मिलता है और उस वजह से वह ‘देव’ लोकप्रिय हो जाता है। लेकिन गरीबी, बेरोजगारी, पारिवारिक समस्याओं का बोझ उठाए वही भक्त जब वर्षों वर्ष उस भगवान की कतार में खड़े दिखाई देते हैं तो तकलीफ होती है।
पुणे में बालन
पुणे में कलमाड़ी ने गणेशोत्सव को ‘गणेश फेस्टिवल’ बना दिया। अब कलमाड़ी की जगह पर पुनित बालन आ गए हैं। पुणे में इस बार का गणेशोत्सव पुनित बालन उत्सव के रूप में चर्चा में है। हर गणेश मंडल में, सड़कों पर, हर जगह उद्योगपति बालन के होर्डिंग्स और बैनर नजर आते हैं। ये सब वित्तीय हेर-फेर है। सामाजिक सरोकार के नाम पर यह सब किया जाता है। गणेशोत्सव मंडल को बड़ी विदाई दिए बिना अब कोई भी वैâसा भी चुनाव नहीं लड़ सकता। फिर ये मंडल सभी पार्टियों से पैसा इकट्ठा करते हैं और मंडप के बाहर उन दानदाताओं की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगाते हैं। यह सीधे तौर पर उत्सवों का विद्रूपीकरण है। एक समय सार्वजनिक गणेशोत्सव में संगीत प्रदर्शन, विभिन्न प्रतियोगिताएं, मराठी नाटक, व्याख्यान, भाषण आयोजित किए जाते थे। अब साहित्य-कला-संस्कृति एक विचित्र तरह के कोलाहल में बह गई है। गणपति कला और संगीत के उपासक हैं। मंडप से ये सब दूर हो गए। फिर भी गणेशोत्सव का रंग चढ़ता नजर आ रहा है। बड़े मंडलों को उद्योगपतियों से बड़ी रकम आसानी से मिल जाती है। बिल्डर उन इलाकों में झुग्गी पुनर्वास परियोजनाओं का काम चाहते हैं और ऐसे कामों के लिए इन सार्वजनिक मंडलों का इस्तेमाल किया जाता है। ये आज के गणेशोत्सव की तस्वीर है। फिर भी ये उत्सव जारी रहना चाहिए। बीजेपी के बिल्डर मंत्री मंगलप्रभात लोढ़ा ने आज मुंबई के कई हिस्सों में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। इसलिए दक्षिण मुंबई के गणेशोत्सव पर ‘लोढ़ा’ की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। मुंबई महाराष्ट्र की और मुंबई के गणेशोत्सव लोढ़ा के। यह तस्वीर भविष्य के लिए अच्छी नहीं है। जब गणेशोत्सव ने जागरूकता का काम किया, तब गणपति का त्योहार और मंडप सामान्य थे। आज हमारे भगवान भी २० किलो के मुकुट के नीचे थोड़े दब गए होंगे।
भिंगारा से गोमाल इन आदिवासी गांवों को जोड़नेवाले कीच़ड़ भरे कच्चे रास्तों पर माता-पिता को अपने बच्चों की लाशें कंधे पर लिए १५ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है, लेकिन गणेशोत्सव में पैसों की बारिश हो रही है!