दिल की बगिया में जख्मों के गुलाब हैं
कांटों से बढ़कर हमें खुशबू’ से संभलना है।
वक्त के मिजाज को किसने परखा है?
तपती धूप, शीतल छइयां या जीवन बरखा है।
हाल ए बयां गम के आंसू ही गवाह हैं,
लाख तन्हा सही मगर दर्द की जुबां है।
सीने में उठी टीस को सीने में ही पलना है
जिंदगी की आग में अरमानों का जलना है।
अगर कुछ सहारे हैं, मतलब के सारे हैं
रिश्तों की हवेली में दीवारें और दरारें हैं
रेत के महल में शीशे की दीवार कहां है,
हकीकत से परे ये सपनों का जहां है।
कड़वी यादें आज भी पीछा नहीं
छोड़े हैं, कितने ख़्वाब ‘जेहन मे’
मैंने बुनें और उधेड़े हैं।
संबंधों के धागों में गांठें बेहिसाब हैं,
अपनी भी कहानी ‘त्रिलोचन’ एक उलझी हुई किताब है।
– त्रिलोचन सिंह अरोरा