डाॅ रवीन्द्र कुमार
एक खबर पेपर में छपी है कि मुंबई में मच्छर मारने में लगभग प्रति मच्छर सरकार को रुपये 2400/- खर्च करने पड़ रहे हैं। मुझे ऐसा लगा और मैं समझता हूँ मच्छरों को भी लगेगा ये कुछ ज्यादा ही हैं। हां मगर मच्छर इस पर ‘प्राउड’ फील कर सकते हैं कि महज़ उन्हें खत्म करने के लिए सरकार को, मुंबई की भाषा में बोलें तो कितने की सुपारी देनी पड़ रही है। इससे सस्ते में तो आदमी को खत्म करने की सुपारी दी जा सकती है। हमें आए दिन अखबार में पढ़ने को मिलता है पांच सौ रुपए के लिए जान ले ली। पचास रुपए के झगड़े में जान गई आदि आदि।
सोचने वाली बात ये है कि ये मच्छरों को ऐसे रेट कब से बढ़ गए और ये बताया किसने कि मच्छर मारने को प्रति मच्छर 2400/- खर्चने पड़ रहे हैं। अब मच्छरों ने कोई स्टडी की हो, कोई सर्वे किया हो तो पता नहीं। हो सकता है कि इस बार ठेका इस बात पर दिया गया हो कि एक मृत मच्छर लाओ और 2400/- रुपए पाओ। सुनते हैं सरकारें ऐसा प्लेग के वक़्त चूहों के लिए करतीं थीं कि एक मरा हुआ चूहा लाओ और इतनी धनराशि पुरस्कारस्वरूप ले जाओ। कहते हैं इसमें भी भाई लोग बाज नहीं आते थे और एक ही चूहे से कई-कई ईनाम लेने लग पड़े। मसलन एक सिर लेकर पहुंचा, दूसरा उसी चूहे की दुम लेकर पहुंच गया। तब ये हुआ कि चूहा पूरा का पूरा मांगता है। ये आधा-अधूरा नहीं चलेगा। इसी प्रकार मच्छर का किया होगा, ऐसा मैं समझता हूँ। मच्छरों की कोई जनगणना बोले तो मच्छरगणना हुई हो ऐसा भी नहीं लगता।
मेरी समझ में ये फी मच्छर खर्चा समझ नहीं आया इसमें ठेकेदार की ‘गुड लक मनी’ और बाबू लोग का सुविधा शुल्क भी शामिल है कि नहीं? या वो अलग से है ? वो किससे वसूल किया जाता है? ज़ाहिर है मच्छर तो नगदी लेकर चलते नहीं उनकी इकाॅनमी हमसे बहुत पहले ही कैशलैस है। उनका तो किसी बैंक में खाता भी नहीं होता होगा। इतने झंझट हैं आजकल खाता खोलने में पेन कार्ड लाओ, आधार कार्ड लाओ, फोटो खिंचाओ नमूने के हस्ताक्षर आदि आदि।
यदि मच्छर की जगह कोई मक्खी मर गयी तो वो गिनती में आएगी या नहीं अथवा ना केवल ये कि उसका कुछ नहीं मिलेगा बल्कि हो सकता है ठेकेदार पर फाइन लगाया जाये कि मारना किसे था मार किसे दिया। पर इतना तो ‘कोलेटरल डैमेज’ में कवर होता होगा।
मैं सिर पकड़ कर बैठा इसी उधेड़बुन में था कि आखिर मुंसिपाल्टी इस राशि पर पहुंची तो पहुंची कैसे? तभी मुझे बताया गया कि ये राशि पर-मच्छर नहीं है बल्कि पर-कपिटा है बोले तो मुंबई में जितने लोग रहते हैं उसमें से मच्छर भगाने के बजट को भाग कर दिया तो पर-कपिटा बोले तो ‘पर-हेड’ पता चल गया कि मुंसिपाल्टी प्रति मुंबईकर 2400/- रुपए खर्च रही है। इसमें वो खर्चा-पानी शामिल नहीं है जो आप अपने ईलाज़ पर उठाएंगे। यदि मच्छर आपको इस सब एतियाहात के बावजूद काट ले तो। वो तो कहीं और ज्यादा होगा। इसके अलावा आप जो रैकेट खरीदते हैं, गुड नाइट खरीदते हैं, फ़िनाइल और तमाम स्प्रे लाते हैं वो अलग है।
भला सोचो तो ! एक मच्छर कितना बलशाली और खर्चीला है। चूहे हों तो आदमी बिल्ली पाल ले, बिल्ली हों तो आदमी कुत्ते पाल ले। मगर मच्छर को डरा सके किसमें इतना दम है ? इन मच्छरों के चलते ना केवल मच्छरों के बल्कि इन्सानों के कितने घर बार चल रहे होंगे। रिश्वत, बरस दर बरस ठेके, धुआँ, दवाई आदि आदि। मच्छर जीवित अथवा मृत हमारी अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग है। उसका सम्मान करें।