डाॅ. रवीन्द्र कुमार
जब भी नेता लोग सभा करते हैं तो लोगों के साथ एक ‘कनेक्ट’ स्थापित करने को लोकल प्रतिभाओं को, बच्चों को या फिर किसी उम्रदराज व्यक्ति को या फिर किसी अन्य सामाजिक कार्यकर्ता को खासकर अपनी पार्टी वाले को या फिर कम से कम अपनी पार्टी लाइन से सहानुभूति रखने वाले को सम्मानित करते हैं। कोई ईनाम-इकराम भी देते हैं और दो शब्द उनकी शान में बोलने का भी रिवाज है।
इसी श्रंखला में एक विधायक महोदय ने अद्भुत काम कर दिया। उन्होंने अपने इलाके के दो-चार नहीं, बल्कि सौ गंजों को सम्मानित करने का फैसला किया। उन्होंने बाकायदा सौ गंजों को मंच पर एक-एक कर बुलाया और एक ओजस्वी भाषण दिया तथा उनको ‘मोटीवेट’ किया। विधायक महोदय जानते थे कि गंजे बेचारे अपने गंजे सिर को लेकर परेशान रहते हैं। उसी परेशानी को एड्रेस किया। गंजों में एक स्फूर्ति और खुशी की लहर दौड़ गई है।
देखिए होता क्या है, सामान्यतः नेता लोग मंच से कुछ भी ऊल-जलूल बोल कर चले जाते हैं। न लोकल इशू उठाते हैं न उन पर ध्यान जाता है। वो न जाने कौन सी दुनिया के मुद्दों की बात करते नजर आते हैं, जिनका गांव-खेड़े से कुछ लेना-देना नहीं होता। लेकिन ये एक बड़ा ही रिफ्रेशिंग बदलाव है और इसकी शुरुआत हम गंजों से की है। इसके लिए विधायक महोदय ने हम गंजों का दिल जीत लिया। ऐसा नहीं है कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में केवल सौ गंजे ही होंगे कम ज्यादा हो सकते हैं, लेकिन ये प्रतीकात्मक जेश्चर है। मैं किसी ऐसे गंजे को नहीं जानता, जिसने अपने गंजेपन से रिकन्साइल कर लिया हो, उसके सीने में एक दबी इच्छा सदैव बनी रहती है। काश कोई ऐसा तेल, लेप, चल जाये जिससे उनकी खेती फिर से लहलहा उठे।
अब तो यह नुक्स महिलाओं में भी दृष्टिगोचर होने लगा है। किसी भी भद्र महिला से पूछ देखिये उसके दुख ही तीन हैं। एक पति, दूसरा कामवाली बाई, तीसरा गिरते हुए बाल। इस नजर से विधायक जी ने सही नब्ज को पकड़ा है। पहले के शायर दीवान के दीवान जुल्फों पर लिख मारते थे कि आजकल ये गिरते हुए बालों का कारोबार डॉ और डॉ का स्वांग भरने वालों ने अपना लिया है। यह उद्योग खूब फल-फूल रहा है। बाल आए या न आए इसके चक्कर में इनके बाल-बच्चे सैटल हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में ये गंजा होता हुआ इंसान अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बड़ा सहारा है। इस नजर से भी गंजों का सम्मान बहुत सफल प्रयोग है। कोई पता लगाए कि इन विधायक महोदय का कोई बाल-उगाने का क्लीनिक तो नहीं? संयोग हो सकता है।
अब गंजों के सम्मान के बाद किसका नंबर है? समाज में तरह-तरह के वर्ग हैं, जो एकदम उपेक्षित पड़े हैं। उनका कोई धनी-धोरी नहीं। जैसे शिक्षित बेरोजगार जैसे बिन शिक्षा बेरोजगार, जैसे भिखारी, जैसे जेबकतरे, जैसे पब्लिक ट्रांसपोर्ट के ड्राइवर्स, जैसे कैब ड्राइवर्स, जैसे मकान बनाने वाले राज-मिस्त्री, जैसे बाइक पर आने वाला आपका इंजीनियरिंग डिग्री वाला कूरियर बॉय। आपकी सोसायटी के गेट पर खड़े गार्ड्स। गोया कि हमारे आस-पास ही ऐसे न जाने कितने कर्मवीर चुपचाप अपने काम से लगे हैं, उन पर कभी किसी का ध्यान ही नहीं जाता, सिवाय तब के जब वो कोई गलती कर दें या कोई बड़ा मसला न उठ खड़ा हो। इस मामले में हम सब गंजे हैं। बोले तो कोई किसी बात से कोई किसी बात से। हमें कभी ऐसे विधायकों का भी सम्मान करना चाहिए, जो सफलतापूर्वक असल मुद्दे से बच रहे हैं। न उनके बस का बेरोजगारी खत्म करना है, न वो अपने इलाके में कोई इंडस्ट्री लगवा सकते हैं और न ही अपने क्षेत्र के लिए कोई अन्य रचनात्मक काम ही करा सकने में सक्षम हैं। बेचारों को खबर में भी रहना है और चुनाव भी जीतना है तो चलो गंजों से ही शुरुआत सही। बात यहीं खत्म नहीं होती, नेता जी चाहते हैं कि इन गंजों को बतौर बुद्धिजीवी मान्यता भी प्रदान की जाए। अब से समस्त गंजे बुद्धिजीवी कहलाएंगे। वैसे एक बात है कि हमारे देश में कोई वर्ग अगर इफरात में पाया जाता है तो वो है बुद्धिजीवी वर्ग। एक ढूंढ़ो हजार मिलते हैं, दूर ढूंढो… इन्हीं बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल होने आ गए हैं–हम गंजे।