मुख्यपृष्ठस्तंभराज की बात : टैक्स की संरचना, पराया माल अपना

राज की बात : टैक्स की संरचना, पराया माल अपना

द्विजेंद्र तिवारी मुंबई

इसी हफ्ते सोशल मीडिया की एक पोस्ट की खूब चर्चा रही। आईपीएल के एक पैâन ने पोस्ट किया कि एंटरटेनमेंट टैक्स को टिकट की मूल कीमत में जोड़ने के बाद उस पर फिर से जीएसटी लगाया गया। यानी टैक्स पर टैक्स। २,२०० रुपए का टिकट दर्शक के हाथ में पहुंचते-पहुंचते चार हजार रुपए का हो गया। दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं होता। भारत में टैक्स संरचना ऐसी है कि हम एक ही वस्तु पर कई बार टैक्स अदा करते हैं। कोई भी वस्तु जब आम उपभोक्ता तक पहुंचती है, तब तक सरकारी लूट से पिटते हुए दोगुनी कीमत की हो जाती है। ऐसा सिर्फ आईपीएल टिकट पर फिजूलखर्ची के साथ ही नहीं होता, आवश्यक खाने-पीने की चीजों और दवाओं पर भी यह दोहरी मार होती है।
देश के लिए खेलने और जीतने की ऊर्जा और भावना से विहीन और शुद्ध कमर्शियल क्रिकेट आईपीएल के इस घोटाले पर सरकार की तरफ से अब तक कोई जवाब नहीं आया है। शायद सरकार भी मानती है कि आईपीएल टीम मालिकों की जेब भर रही यह मनोरंजन क्रिया इसी लायक है।
लेकिन टैक्स की संरचना कई गंभीर सवाल खड़े करती है। हर वस्तु पर इतना टैक्स देने के बाद भी गरीबी क्यों नहीं कम हो पा रही है? सारा टैक्स का पैसा जाता कहां है, जब कि सामान्य जनता के लिए कोई भी मूलभूत सुविधा जैसे इलाज या पढ़ाई मुफ्त नहीं है।
जीडीपी का जश्न क्यों
तो फिर हमें सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में भारत के पांचवें स्थान पर आने या अगले कुछ वर्षों में इसके तीसरे स्थान पर आने का जश्न क्यों मनाना चाहिए? अगर गुरबत इसी रफ्तार से बढ़ती रहेगी तो जीडीपी में पहला स्थान पाकर भी क्या हो जाएगा?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रति व्यक्ति जीडीपी के आधार पर कुल १९५ देशों में से १३९ देश हमसे आगे हैं। यहां तक ​​कि क्रय शक्ति समता (परचेजिंग पॉवर पैरिटी-पीपीपी) पर विचार करने पर भी भारत की स्थिति ११९वें स्थान पर चिंताजनक रूप से बनी हुई है। पीपीपी का उपयोग अक्सर जीवन स्तर को बेहतर ढंग से मापने और दर्शाने के लिए किया जाता है।
वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब द्वारा किए गए अध्ययनों से उपलब्ध नवीनतम डेटा के आधार पर भारत की शीर्ष एक प्रतिशत आबादी के पास भारत की कुल संपत्ति का लगभग ४० प्रतिशत हिस्सा है। इसी शीर्ष एक प्रतिशत अमीर वर्ग ने उसी अवधि में राष्ट्रीय आय का लगभग २२.६ प्रतिशत हिस्सा कमा लिया, जो १९२२ के बाद से सबसे ज्यादा है। इतनी विषमता तो अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं थी।
अरबपति राज
भारत की कुल घरेलू संपत्ति का अनुमान हाल के वर्षों में १५ ट्रिलियन डॉलर के आसपास माना जाता है, तो शीर्ष एक प्रतिशत के पास लगभग छह ट्रिलियन डॉलर होगा। यह एक बहुत बड़ा आंकड़ा है, जो वार्षिक जीडीपी (३.५ ट्रिलियन डॉलर) से कहीं ज्यादा है। यह भारत में असमानता की व्यापक प्रवृत्ति को दिखाता है, जहां ‘अरबपति राज’ ब्रिटिश राज से भी अधिक असमान है। निचले ५० प्रतिशत के पास देश की संपत्ति का सिर्फ लगभग तीन प्रतिशत हिस्सा है। इसका मतलब यह भी है कि अमीरी का लाभ नीचे नहीं पहुंच रहा है।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि पश्चिमी देशों में भी शीर्ष एक प्रतिशत के पास उस देश की संपत्ति का ३५ से ४५ प्रतिशत तक होता है, लेकिन उनकी प्रति व्यक्ति आय करोड़ों में होती है। उदाहरण के लिए स्विटजरलैंड में भी शीर्ष एक प्रतिशत के पास देश की ४३ प्रतिशत संपत्ति है। इसके बावजूद, औसत संपत्ति के हिसाब से स्विटजरलैंड दुनिया का सबसे धनी देश बना हुआ है, जहां प्रत्येक वयस्क की सालाना आय लगभग ६ करोड़ रुपए है। यह वर्ग सामान्य रूप से कामकाजी और मध्यम वर्ग का होता है। दुनिया के हर देश में बेहद गरीब भी हैं। पर नौकरी करने वाले वर्ग की औसत आय में भारी अंतर देखने को मिलता है। भारत की ९० प्रतिशत आबादी के पास महीने की २५ तारीख को वेतन राशि समाप्त हो जाती है। इसका अर्थ यह है कि एक माह का वेतन अगर न मिले तो इस विशाल आबादी का बजट गड़बड़ा जाता है।
यूबीएस ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट २०२४ में बताया गया है कि वैश्विक धन वितरण जितना ज्यादातर लोग समझते हैं, उससे कहीं ज्यादा विषम है।
आर्थिक विषमता में वृद्धि
यूबीएस की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत अरबपतियों की संपत्ति के मामले में दुनिया भर में अमेरिका और चीन के बाद तीसरे स्थान पर है। भारत में १८५ अरबपति हैं और कुल संपत्ति ९५० बिलियन डॉलर है। यह पिछले वर्ष की तुलना में २१ प्रतिशत की वृद्धि है और २०१५ से १२३ प्रतिशत की वृद्धि है। इस सूची में अव्वल आने पर कुछ भक्तगण ताली बजा सकते हैं, पर यह आर्थिक विषमता का सबसे बड़ा उदाहरण है। आर्थिक विषमता के मामले में दक्षिण अप्रâीका, ब्राजील और अमेरिका के बाद भारत का चौथा स्थान है। पिछले १५ वर्षों में अमेरिका ने विषमता का यह अंतर ढाई प्रतिशत कम किया, लेकिन भारत में यह विषमता १६ प्रतिशत बढ़ गई।
अगर इन भारी भरकम आंकड़ों को नजरअंदाज भी करें तो डेढ़ सौ करोड़ की आबादी की ओर बढ़ रहे भारत के करोड़ों लोगों के लिए क्या कोई योजना बनाई जा रही है? क्या सरकारें दो सौ करोड़ हाथों के लिए काम देने की ठोस नीति पर काम कर रही हैं?
वैश्विक श्रम प्रवृत्तियों में तेजी से हो रहे बदलावों, एआई, ऑटोमेशन और रोबोट के साथ दुनिया चुनौतीपूर्ण समय की ओर बढ़ रही है, पर लगता नहीं कि किसी को इसकी फिक्र है।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)

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