सुषमा गजापुरे
चंडीगढ़ मेयर का चुनाव हो या राज्यसभा के चुनाव, भारत की राजनीति ने राजनैतिक धूर्तता की पराकाष्ठा देख ली है। सत्य, ईमानदारी, नैतिकता और मर्यादा अब सिर्फ और सिर्फ किताबी बातें बनकर रह गई हैं। भ्रष्ट आचरण और किसी भी कीमत पर सत्ता अब इस बात का आभास दे रही है कि हम अब सोमालिया और रवांडा के राजनैतिक डोमेन से बहुत अधिक दूर नहीं हैं। लोकतंत्र की हत्या जैसे शब्दों का हमारे राजनैतिज्ञों पर कोई असर नहीं होता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई इस प्रकार की टिप्पणियां एक प्रकार से फिजूल हैं, क्योंकि उनकी कोई दल परवाह नहीं करता है। भाजपा के भ्रष्ट आचरण ने देश में नए आयाम पैदा कर दिए हैं और उनके लिए सत्ता ही अब अंतिम लक्ष्य है। कभी-कभी ये समझ नहीं आता कि राम का नाम लेकर इनके दल के लोग वैâसे दानवी प्रवृत्तियां पैदा कर लेते हैं, शायद इनके राम वो नहीं हैं जिन्हें हम सब सदियों से पूजते आए हैं। अधर्म को धर्म कहनेवाले लोग अब चंद नहीं हैं, ये अब करोड़ों में हैं और देश में अनैतिकता, बेईमानी और भ्रष्ट आचरण को देश का नया संविधान कह रहे हैं।
एक बात निश्चित रूप से निकलकर बाहर आ रही है कि चुनाव बैलट पेपर से हो जैसे कि चंडीगढ़ मेयर के केस में हुआ या फिर राज्यसभा की क्रॉस वोटिंग हो जहां पर पैसे और ईडी-सीबीआई के दबाव में भारत के चुने प्रतिनिधि भी बिकने को तैयार हैं। यहां पर नैतिकता का कोई काम नहीं। जैसे कि हम सोमालिया की राजनीति देखते आए हैं, अब भारत के चुने प्रतिनिधि भी एक खुली मंडी में बिकने को तैयार हैं। फर्क इतना है कि चंद लोगों को छोड़कर हर निर्वाचित प्रतिनिधि अपनी कीमत लगाकर बैठा है। कोई १ करोड़ में बिक जाता है तो कोई १० अथवा १०० करोड़ में। भारत के बिके हुए प्रतिनिधियों ने एक बात विश्व के सामने रख दी है कि हम भारतीयों की कोई नैतिकता या संस्कार नहीं है। हम आज भी मध्यकालीन मानसिकता में जी रहे हैं, जहां इंसानों को गुलामों की तरह खरीदा-बेचा जाता था। आज भी कुछ बदला नहीं है। आज भी चुने प्रतिनिधि खरीदे और बेचे जाते हैं। करोड़ों भारतीयों का सिर शर्म से झुक जाता है यह सब देखकर।
भारत के सत्ताधीश अब राजनैतिक दल कम और एक माफियातंत्र की तरह अधिक कार्य कर रहे हैं। इससे बड़ा देश का दुर्भाग्य और क्या हो सकता है। जरा सोचिए, जो व्यक्ति चुने जाने के बाद सदस्य अथवा मंत्री पद की शपथ लेते हैं वो अपनी शपथ में क्या कहते हैं-
‘मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूं/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा। मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा, मैं संघ के मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूंगा।’
अब आप खुद सोचिए कि चुने हुए प्रतिनिधि ये शपथ खाने के बाद क्या उनका निर्वहन करते हैं? क्या ये संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखते हैं? क्या वो अपने कर्तव्यों का शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करते हैं? क्या वो संविधान और विधि के अनुसार न्याय करते हैं? इसका उत्तर नहीं है। आज चुने हुए प्रतिनिधि कानून का उल्लंघन आंखें खोलकर करते हैं, न्याय का मंदिर भी आज अछूता नहीं रहा, जहां पैâसले के इंतजार में आदमी मर जाता है या गलत फैसले का शिकार हो जाता है। एक सवाल मन में उठता है कि हमारा इतना अधिक पतन क्यों हुआ और आगे कहां तक गिरनेवाले हैं? उत्तर अपने आप से पूछना होगा।
अब सवाल ये उठता है कि भारत के भाग्यविधाता कैसे होंगे। क्या भाग्यविधाता ऐसे होंगे, जहां १५० चुने हुए प्रतिनिधियों को संसद से एक साथ निलंबित कर दिया जाए और महत्वपूर्ण बिल बिना प्रतिरोध के पास करवा लिए जाएं? सच ये है कि भारत की लोकतांत्रिक छवि अब बुरी तरह से उखड़ी हुई और दागदार हो गई है। अब चीनी और रूसी सरकारों के साथ भारत के लोकतंत्र की तुलना की जा रही है। भारत की लोकतांत्रिक शक्तियां जो देश के नागरिकों के हित के लिए अपने नरम रुख और संवेदनशीलता के लिए जानी जाती थीं, वह अब लगभग समाप्ति की ओर हैं। अब जो उभरकर आ रहा है वह केंद्र सरकार का असंवेदनशील और अधिनायकवादी चेहरा है जो उनके प्रति असहमतियों को कुचलने, विद्रोह के स्वरों को दबाने और निर्दोष समाजसेवियों, कार्यकर्ताओं, मंच के हास्य कलाकारों, पत्रकारों और किसानों के खिलाफ बड़ी निर्ममता के साथ उभरकर आ रहा है।
भारत में अब जो कुछ हो रहा है, उसकी बराबरी धीरे-धीरे अन्य कई तानाशाही शासन से हो सकती है। चीनी और भारतीय शासन को अलग करनेवाली रेखा हर गुजरते दिन धुंधली हो रही है। लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित भाजपा सरकार द्वारा अधिकांश निर्णय गुपचुप तरीके से लिए जाते हैं और बिना किसी चर्चा के इस देश के लोगों पर थोपे दिए जाते हैं। भारत वर्ष जिसे गांधी, बुद्ध और महावीर की दया भूमि के रूप में जाना जाता था, उसे अब समस्त विश्व में तानाशाही शासन के रूप में देखा ज्ाा रहा है। अगर यह चलन कुछ और समय तक जारी रहा, तो हम सभी इस महान देश में लोकतंत्र की मौत के गवाह बनेंगे।
(स्तंभ लेखक आर्थिक और समसामयिक विषयों पर चिंतक और विचारक हैं)