यू.एस. मिश्रा
‘सुन मेरे बंधु रे सुन मेरे मितवा…’, ‘वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहां…’, ‘मेरे साजन हैं उस पार मैं मन मार हूं इस पार…’, ‘डोली में बिठाई के कहार लाए मोहे सजना के द्वार…’, ‘काहें को रोये चाहे जो होये…’ जैसे एक से बढ़कर एक गीतों को अपने सुरों में पिरोनेवाले सचिन देव बर्मन को भले ही करियर की शुरुआत में ये कहकर रिजेक्ट कर दिया गया हो कि उनकी आवाज नाक से निकलती है, जो रिकॉर्डिंग के लिए उपयुक्त नहीं है, लेकिन आगे चलकर गायकी के साथ ही संगीतकार बन उन्होंने ऐसा इतिहास रचा, जिसका कोई आज भी सानी नहीं है।
त्रिपुरा राजघराने से ताल्लुक रखनेवाले सचिन देव बर्मन का जन्म १ अक्टूबर, १९०६ को हुआ। ९ भाई-बहनों में सचिन सबसे छोटे थे। बचपन में जब वे खेतों में किसानों को काम करते हुए लोकगीत गाते सुनते तो उन गीतों में खो जाते। ऐसे ही एक बूढ़े किसान द्वारा गाये लोकगीत ‘रंगीला रंगीला रंगीला रे…’ से सचिन इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने संगीत के महासागर में कूदने का मन बना लिया। सचिन की पढ़ाई-लिखाई भले ही चल रही थी, लेकिन पिता नवदीपचंद्र को इस बात की चिंता थी कि बेटे की जिंदगी सिर्फ संगीत के सहारे वैâसे कटेगी क्योंकि राजपाट भी चला गया था। पिता ने उनका दाखिला अगरतला के एक बोर्डिंग स्कूल में करवाया, लेकिन एक वर्ष बाद जब उनका एडमिशन कोमिल्ला के एक स्कूल में हुआ तो पढ़ाई के दौरान सचिन देव गांवों की सुंदरता में खो गए। राजघराने से ताल्लुक रखने के कारण उनकी नसों में जहां शास्त्रीय संगीत दौड़ता था, वहीं कोमिल्ला जाने के बाद पूरे ईस्ट बंगाल का लोक संगीत और उसकी भटियाली धुन उनकी नस-नस में प्रवाहित होने लगी। खैर, बीए करने के बाद सचिन १९२४ में कोलकाता पहुंच गए और इंग्लिश से एमए की पढ़ाई करने लगे, लेकिन कोलकाता पहुंचने के बाद उन्हें लगा कि पढ़ाई और संगीत एक साथ नहीं चल सकता इसलिए पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वो पार्श्वगायक मन्ना डे के चाचा कृष्ण चंद्र डे के शागिर्द बन गए। पिता के कानों में जब ये बात पहुंची तो कोलकाता पहुंचकर उन्होंने सचिन की जमकर खबर ली और उनका दाखिला लॉ कॉलेज में करवा दिया, ताकि सचिन बैरिस्टर बनकर त्रिपुरा दरबार में नौकरी करे। पिता के कोलकाता से वापस जाते ही सचिन पढ़ाई छोड़कर कृष्ण चंद्र डे के गुरु उस्ताद बादल खां से संगीत सीखने लगे। १९३१ में पिता के निधन के बाद अब उनके सामने एक बड़ी समस्या उपस्थित हो गई कि वो अपना खर्चा वैâसे चलाएं? तभी त्रिपुरा के महाराज ने उन्हें राज्य का शिक्षामंत्री बनने का न्योता भेजा। त्रिपुरा महाराज का न्योता मिलने के बाद सचिन के सामने एक विकट समस्या खड़ी हो गई कि वो संगीत चुने या राजनीति। आखिरकार, संगीत ने बाजी मारी और उन्होंने एक कमरा किराए पर लेकर संगीत का ट्यूशन देने के साथ ही कोलकाता रेडियो स्टेशन पर गीत गाना प्रारंभ कर दिया। १९२७ में पहली बार रेडियो पर गीत गाने पर बतौर पारिश्रमिक उन्हें दस रुपए मिले। उन दिनों ‘एचएमवी’ लोकप्रिय और मशहूर गायकों के रिकॉर्ड निकालती थी। अत: सचिन चाहते थे कि उनके गाने ‘एचएमवी’ रिकॉर्ड करे। इसके लिए उन्होंने बाकायदा ऑडिशन भी दिया, लेकिन उनकी आवाज नाक से निकलने को वजह बताते हुए स्वर परीक्षा लेनेवाले ने साफ-साफ कह दिया कि उनकी आवाज रिकॉर्डिंग के लिए उपयुक्त नहीं है। ‘एचएमवी’ द्वारा रिजेक्ट कर दिए जाने के बाद उनके मन में अपनी आवाज रिकॉर्ड करवाने की इच्छा तब बलवती हुई, जब संगीत प्रेमी चंडी चरण ने जर्मनी से रिकॉर्डिंग मशीनों को खरीदकर ‘हिंदुस्तान म्यूजिकल प्रोडक्ट’ नामक एक म्यूजिक कंपनी खोली। कंपनी खोलने के बाद उन्होंने नए गायकों की तलाश में इश्तिहार दिया। सचिन देव उनके पास पहुंचे और बात बन गई। कंपनी ने उनके दो गानों का एक रिकॉर्ड निकाला और उनके गीतों ने हर तरफ धूम मचा दी। १९३४ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ओर से सचिन देव को अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में शामिल होने का आमंत्रण भेजा गया। इस कार्यक्रम में मशहूर गायक के.एल. सहगल भी आमंत्रित थे। खैर, कार्यक्रम के दौरान तबीयत नासाज होने के कारण सहगल साहब ने आयोजकों से पहले गीत गाने का आग्रह किया। अब सहगल साहब को भला कौन टाल सकता था। सहगल साहब ने पहले मंच पर गीत गाना शुरू किया और गीत खत्म होते ही जैसे ही वो समारोह से बाहर निकलने को हुए, तभी सचिन ने माइक पर जैसे ही अपना पहला सुर लगाया के.एल. साहब बाहर निकलना भूलकर वहीं जड़वत खड़े हो गए और तब तक खड़े रहे जब तक सचिन देव बर्मन ने अपना गाना खत्म नहीं कर दिया।