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विशेष सम-सामयिक : जम्मू-कश्मीर में आतंक की घातक वापसी

विजय कपूर

जम्मू डिविजन के कठुआ जिले में सीमावर्ती गांव सेदा सोहल में ११ जून २०२४ को देर रात आरंभ हुई मुठभेड़, जो लगभग १५ घंटे चली, में सीआरपीएफ का एक कांस्टेबल शहीद हो गया और दो संदिग्ध पाकिस्तानी आतंकियों को मार गिराया गया। इससे अगले दिन यानी १२ जून २०२४ को इंटेलिजेंस ने फिदायनी हमले की अलर्ट जारी की। इसका अर्थ यह है कि आतंकी हमलों का जो नया दौर ९ जून २०२४ को शुरू हुआ था, उसके अभी जारी रहने की आशंका है, अगर जल्द इसे नियंत्रित करने के उचित सुरक्षा बंदोबस्त न किए गए। इस समय आतंकी हमले सुरक्षाकर्मियों व तीर्थयात्रियों पर अधिक हो रहे हैं। डोडा जिले में भदरवाह पठानकोट हाइवे पर छतेरगाला माउंटेन पास के निकट वाले चेकपोस्ट पर १२ जून २०२४ की रात को एक बजे आतंकी हमला हुआ, जिसमें राष्ट्रीय राइफल्स के ५ ट्रूपर्स व एक विशेष पुलिस अधिकारी गंभीर रूप से घायल हो गए। इसके पहले ९ जून २०२४ को जब राजधानी दिल्ली में नई सरकार का शपथ ग्रहण समारोह चल रहा था, उस समय जम्मू संभाग में स्थित रियासी जिले में शिवखेड़ी से कटरा जा रही श्रद्धालुओं के एक बस पर आतंकवादियों ने अंधाधुंध फायरिंग की, जिससे ड्राइवर ने बस का संतुलन खो दिया और बस सड़क से सैकड़ों फिट नीचे जा गिरी, जिससे ९ तीर्थयात्रियों की तत्काल मौत हो गई और लगभग ५० घायल थे। अगर बस गड्ढे में नहीं गिरती तो आतंकी सभी तीथयात्रियों को मार डालते। जम्मू-कश्मीर में इस हमले में शामिल आतंकियों के स्वैâच जारी करते हुए राज्य के लोगों से कहा है कि जो भी व्यक्ति इन आतंकियों का सुराग देगा, उसे २० लाख रुपए ईनाम के बतौर मिलेंगे और उसके नाम को गुप्त रखा जाएगा।
इस आतंकी हमले पर देशभर में जबरदस्त गुस्सा है, विशेषकर सोशल मीडिया पर पीड़ितों की भयावह तस्वीरें वायरल होने की वजह से। रियासी हमले ने इस तथ्य को एक बार फिर दोहराया है कि जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा चुनौतियों को संबोधित करने के लिए सैन्य कार्यवाही से अधिक की आवश्यकता है। समाधान की तलाश में स्थानीय राजनीति व नाज़ुक सामाजिक संतुलन को भी शामिल किया जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-३७० के तहत विशेष दर्जा प्राप्त था, जिसे ५ अगस्त २०१९ को निरस्त कर दिया गया। इसके बाद से आतंकियों की रणनीति घाटी में टारगेट किलिंग्स करने और पीर पंजाल के दक्षिणी पहाड़ी जिलों में सुरक्षाकर्मियों को नुकसान पहुंचाने की रही है। पीर पंजाल रेंज कश्मीर घाटी को जम्मू से अलग करती है। राजौरी-पुंछ में २०२३ में कुल ५९ लोग मारे गए थे, २४ सुरक्षाकर्मी, ७ नागरिक व २८ आतंकी शामिल थे। इस पट्टी में यह हमले इस साल भी निर्बाध जारी रहे हैं।
मनोवैज्ञानिक युद्ध मिलिटेंट योजना का बुनियादी तत्व है। मिलिटेंट्स ने कभी-कभी बॉडी वैâमरा का भी प्रयोग किया है, हमलों को फिल्म करने के लिए और फिर उन्हें भड़काऊ टिप्पणी के साथ सोशल मीडिया पर अपलोड भी किया है। अधिकारियों का कहना है कि इस क्षेत्र में लगभग २५ मिलिटेंट सक्रिय हैं, लेकिन इससे इस बात का पर्याप्त उत्तर नहीं मिल पाता है कि मिलिटेंट समय-समय पर भारी नुकसान पहुंचाने में क्यों सफल हो रहे हैं? इस संदर्भ में एक बात यह कही जाती है कि २०२० में जब भारत व चीन के बीच तनाव में वृद्धि हुई तो राजौरी-पुंछ पट्टी से सेना को लद्दाख सेक्टर में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तैनात कर दिया गया। यह एक वजह हो सकती है, लेकिन अन्य तत्वों को समझना भी आवश्यक है। जम्मू-कश्मीर के पहाड़ी क्षेत्रों में सेना तैनाती में कटौती करने से सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित अवश्य हुई है। १९९० के दशक के मध्य से आतंकियों की रणनीति को विफल करने में रोड-ओपनिंग पेट्रोल्स की भूमिका महत्वपूर्ण रही है कि सुरक्षा बलों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मार्ग सुरक्षित हो सके।
कश्मीर में तो मैदानी इलाके हैं और रोड नेटवर्क अच्छा बना दिया गया है, लेकिन इसके विपरीत रियासी-राजौरी-पुंछ में यातायात व्यवस्था अविकसित है। इसलिए प्रभावी काउंटर-टेररिज्म स्ट्रेटेजी के गठन में नई चुनौतियों का भी संज्ञान लेना जरूरी होगा। दरअसल, १९९० के दशक के मध्य तक पहाड़ी क्षेत्रों, जहां विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं, में सुरक्षाबलों के लिए चुनौती में वृद्धि हो गई थी, क्योंकि जो मिलिटेंट्स कश्मीरी नहीं बोलते हैं, उन्होंने यहां पर अपने ठिकाने स्थापित करने आरंभ कर दिए थे। इस चुनौती को उस योजना से संबोधित किया जा सका, जिसमें राजनीतिक पहलू भी शामिल था इसलिए जम्मू-कश्मीर में अमन के लिए सियासी पहल को अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार न केवल सितंबर २०२४ तक जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल करना है, बल्कि विधानसभा चुनाव भी कराने हैं।
जब आतंक या अस्थिरता का वातावरण होता है तो जमीनी हकीकत की सबसे अच्छी जानकारी स्थानीय सियासी वर्ग को होती है और वह ही सूचना को संदर्भित करने की स्थिति में होता है, लेकिन अब जब निर्णय-निर्माण्ा के मैक्रो आकार दिल्ली में तय किए जा रहे हैं तो नीति बनाने व उसे लागू करने के सिलसिले में खालीपन प्रतीत हो रहा है। अगर भूगोल की दृष्टि से देखा जाए तो राजौरी-पुंछ और रियासी भी, जो राजौरी के पास है, पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) का ही विस्तार है। इन दोनों क्षेत्रों में अंतर सिर्फ जनसंख्या का है कि हिंदुओं व सिखों की यहां अच्छी-खासी आबादी है, जिनके अधिकतर परिवार १९४७ में नियंत्रण रेखा को पार करके यहां बस गए थे। इनमें से ज्यादातर राजौरी व पुंछ कस्बों में रहते हैं, वैसे यह मुस्लिम बहुल क्षेत्र है।
रियासी हिंदू बहुल जिला है। पहाड़ी रियासी जिला, जिसकी त्रिकूट पहाड़ियों में वैष्णो देवी मंदिर भी है, विशाल जिला है और इसकी सीमाएं राजौरी के कोत्रंका क्षेत्र से मिलती हैं। १९९० के दशक में सेना व मिलिटेंट्स के बीच यहां अक्सर भयंकर मुठभेड़ हुआ करती थी। नागरिकों पर भी हमले होते थे। अब यह हमले व मुठभेड़ फिर आरंभ हो गए हैं। चूंकि जम्मू-कश्मीर में पिछले पांच वर्षों से विधानसभा नहीं है इसलिए सियासी वर्ग का फीडबैक लूप, जो सुरक्षाबलों की मदद कर सके, स्पष्ट रूप से लुप्त है। इसके अतिरिक्त नई दिल्ली में जो ब्यूरोक्रेट बैठे हैं, वे स्थिति की जटिलता को समझते नहीं या समझना नहीं चाहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जम्मू-कश्मीर में शांति स्थापित करने की बजाय अधिक दिलचस्पी इस बात में है कि हिंदी पट्टी में कश्मीर का प्रयोग सियासी मुद्दे के रूप में किया जाए। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में पैâसले भावनाओं में बहकर न लिए जाएं कि देश के एक बड़े वर्ग को प्रसन्न कर दिया जाए, बल्कि तटस्थ विवेक से लिए गए निर्णयों की आवश्यकता है।
हालांकि, धारा ३७० निरस्त किए जाने के एकतरफा लाभ राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गिनवाए जाते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि जमीन पर जो सुरक्षा चुनौतियां हैं, उनका धारा ३७० निरस्त किए जाने से कोई संबंध नहीं है। संक्षेप में बात केवल इतनी-सी है कि जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा केवल सैन्य समस्या नहीं है, इसके समाधान के लिए स्थानीय राजनीति को भी साथ लाना जरूरी है।
(लेखक सम-सामयिक विषयों के विश्लेषक हैं)

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