मुख्यपृष्ठस्तंभसंडे स्तंभ : ‘दिव्य दृष्टि’ से खोजते हैं वे जमीन में पानी

संडे स्तंभ : ‘दिव्य दृष्टि’ से खोजते हैं वे जमीन में पानी

विमल मिश्र

‘जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ …’ की कहावत आपने सुनी होगी। चिलचिलाती धूप है और देह को छीलने वाली गर्मी। मुंबई में पारा ४० को पार करने लगा है। पानी की कटौती सर पर है और पानी के स्रोत सूखने लगे हैं। ऐसे में तेजी से विलुप्तप्राय हो रहे वॉटर डिवाइनर्स की छोटी सी एक फौज अपने अबूझ ज्ञान से जमीन से पानी खोजकर लोगों की प्यास बुझा रही है।

तपती दोपहरी में मुलुंड से कसारा परिक्रमा करते हुए चौकन्नी आंखें आस-पास के भूगोल का मुआयना करते हुए और ध्यान एकटक हाथ की सीधी हथेली में खड़े पानी वाले नारियल के कंपन पर। उद्धव विठ्ल वाघमारे महानगर में बच रहे चंद वॉटर सर्वेयर्स (अन्य नाम वॉटर डिवाइनर या वॉटर साइंटिस्ट) में हैं, जिनकी छठी इंद्री ने उन्हें वह क्षमता बख्शी है कि नारियल की दशा और दिशा देखकर वे यह गूढ़ ज्ञान दे सकें कि बोरवेल या कुएं के लिए जमीन में ठीक किस जगह खुदाई करनी है और पानी कहां मिलेगा! ९० किलोमीटर की परिधि में यह शख्स पिछले २०-२५ वर्ष में अकेले मुलुंड में ही २०-२५ जगह पानी खोज चुका है। मुंबई और ठाणे में अब कुल मिलाकर २५ से भी कम वॉटर डिवाइनर बच रहे हैं।
मालाड के नंदकिशोर शर्मा ऐसे ही दुर्लभ वाटर साइंटिस्ट हैं। बोरिंग करवाने में जिस जमीन के नीचे पानी की उपलब्धता बतानी होती है, वहां किसी भी पेड़ से वाय के आकार की एक ताजी डाली तोड़ते हैं और पतंग उड़ाते समय जिस तरह चरखी को थामते हैं उसी तरह से दो हाथों में पकड़कर एक छोर जमीन की तरफ रखते हुए हर दिशा में घूमा करते हैं। जिस जगह पानी होता है, अक्सर उस जगह पैर रखते ही डाली घूमने लगती है। विजय सुंकाले की सुरागदेही पर इस तरह मुंबई में दर्जनों जगह पानी मिला है। डोंबिवली और कर्जत के बीच ८० वर्षीय वसंत रामचंद्र मेंढी या मेंढी काका की विशेषज्ञ जानकारी पिछले ४३ वर्षों से क्षेत्र के बिल्डरों के बहुत काम में आई है। नारियल और टहनी ही नहीं, कांटेदार लोहे की छड़ से, पेंडुलम से या दूसरी मशीन, यहां तक कि शरीर को ही उपकरण बनाकर लोग भूजल का पता लगा रहे हैं। ७६ वर्षीय एम. वी. एस. वाई, मूर्ति जल के आकर्षण गुण को प्लास्टिक के दोहरे एंटीना वाले अपने उपकरण से सिद्ध कर रहे हैं।
अबूझ ज्ञान
पानी की कमी वाले क्षेत्रों में वॉटर सर्वेयर्स की इन दिनों चांदी है। मराठवाड़ा के लातूर जैसे जिलों में तो चनप्पा मिठकारी जैसे वाटर डिवाइनर पिछले ३८ वर्षों से २४ घंटा व्यस्त हैं। वी शेप अपने उपकरण से वे न सिर्फ बोरवेल खोदने के लिए पानी की मौजूदगी वाली जगह को पहचान लेते हैं, बल्कि कितनी गहराई पर पानी मिलेगा और कितनी मात्रा में मिलेगा यह भी बता देते हैं। उनकी सटीक भविष्यवाणी ने कई बार राज्य सरकार के ग्राउंडवॉटर सर्वेज एंड डेवलपमेंट एजेंसी के आकलन को झूठा सिद्ध किया है।
वॉटर डिवाइनर अपनी इस अतींद्रीय शक्ति के लिए उल्टा पैदा होने या विशेष ब्लड ग्रुप को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनकी फीस ८,००० से १२,००० रुपए के बीच होती है-कुछ की ज्यादा भी। इस भविष्यवाणी की सफलता की कितनी संभावना है? मुलुंड कॉलोनी में रहने वाले वाघमारे बताते हैं, ‘लगभग सौ टका।’ पानी खोजने के साथ खोदाई, प्लंबिंग जैसे सारे काम करने वाले वाघमारे को अफसोस बस इतना है कि इस ला‌इन में कुछ शातिर लोग भी आ गए हैं- ‘अब तो प्लंबर भी सर्वेयर बन बैठे हैं।’ उनकी चिंता और भी है, ‘इस पेशे में अब नए लोग आना बंद हो गए हैं।’ मायूसी से वे हमें बताते हैं कि इस काम में उनके बेटे को कोई दिलचस्पी नहीं है।
सैटेलाइट टेक्नोलॉजी के इस युग में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो पानी खोजने की इस तकनीक का उपहास करेंगे। ग्राउंडवॉटर सर्वेज एंड डेवलपमेंट एजेंसी के एक अधिकारी ने इसे अंधविश्वास बताकर खारिज कर दिया। उसने बताया, ‘इसमें कोई खास बात नहीं। अधिकतर ऐसा होता है कि सतह पर पानी मिल जाता है और मिलता भी है तो बहुत जल्द खत्म हो जाता है। ग्रामीण फिर इसे भूल जाते हैं।’ इसके उलट सच्चाई यह है कि कई बार सरकारी एजेंसियों ने भी उनकी विशेषज्ञता की मदद से पानी खोजा है। एक वॉटर डिवाइनर ने बताया, ‘यह ब्रह्मांड के व्यवहार और मनुष्य के प्रारब्ध पर आधारित शुद्ध विज्ञान है। घास जिस दिशा में उगती है, कई बार हमें उससे भी पानी की दिशा के बारे में पता चला है।’
‘वॉटर डिवाइनर’ से अलग एक अलग प्रजाति कुआं खोदने वालों की है। शंकर कुआं खोदने वाले एक ऐसे ही लोगों में से हैं। दशकों के अनुभव ने उन्हें वह दिव्य दृष्टि बख्शी है, जिससे वे किसी जगह को देखते ही बता सकते हैं कि यहां अमुक फुट गहराई पर खोदने से पानी मिल जाएगा। इस पेशे में कर्नाटक के भोवी समुदाय का प्राधान्य है। बोरवेल के बढ़ते पैâशन ने उनकी रोजी-रोटी को खतरे में डाल दिया है। भूजल के लिए खुले कुओं को वरदान स्वरूप माना जाता है, जबकि बोरवेल को अभिशाप। नल के पानी के बढ़ते चलन ने कुओं को धीरे-धीरे चलन से बाहर कर रहा है। उपयोग न होने से इन कुओं में ज्यादातर में मिट्टी बढ़ गई और लोगों ने बेकार समझकर उन्हें पूरी तरह त्याग दिया है। कई कुओं की उपयोगिता पास में निर्माण गतिविधियां चलने के कारण कम हो गई है और उनके मालिकों ने ही उन्हें बंद करा दिया है।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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