विमल मिश्र
मुंबई
भायखला में वीरमाता जीजाबाई उद्यान परिसर स्थित डॉ. भाऊ दाजी लाड संग्रहालय- देश के इतिहास की थाती है। मुंबई की सुनहरी यादें सहेजकर रखनेवाला यह म्यूजियम डॉ. भाऊ दाजी लाड की याद में है, जो अपने वक्त मुंबई के सबसे नामचीन डॉक्टर ही नहीं थे, विख्यात पुरातत्ववेत्ता, शिक्षाविद, संस्कृत विद्वान और समाज सुधारक भी थे।
भायखला के वीरमाता जीजाबाई उद्यान (रानीबाग) जानेवाले सैलानी कदम घुसते ही सफेद रंग की एक भव्य विक्टोरियन इमारत को देखकर बरबस ठिठक जाते हैं। यह है डॉ. भाऊ दाजी लाड म्यूजियम- देश के इतिहास की वह थाती, जहां मुंबई की पुरानी सुनहरी यादें बहुत जतन से सहेजकर रखी हुई हैं। यह म्यूजियम उस विख्यात पुरातत्ववेत्ता, शिक्षाविद, जाने-माने डॉक्टर, समाज सुधारक और संस्कृत विद्वान की याद में है, जिन्हें पुरातत्व व मुद्राशास्त्र पर शोध के लिए अंतरराष्ट्रीय ख्याति हासिल हुई। आधुनिक मुंबई के निर्माण में भी उनका उल्लेखनीय योगदान है।
भाऊ दाजी लाड म्यूजियम शहर का सबसे पुराना म्यूजियम है। कला और विरासत के क्षेत्र में डॉ. भाऊ दाजी लाड के योगदान को देखते हुए १९७५ से नाम बदलकर (पुराना नाम विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय) इसे उनके नाम से जाना जाता है। डॉ. भाऊ दाजी लाड म्यूजियम की ख्याति आज अलंकारिक कलाओं के संग्रहालय के रूप में है, पर इसकी शुरुआत नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के रूप में की गई थी। यहां प्रदर्शित वस्तुओं ने विदेशों को भारतीय निर्यात के द्वार खोले। भारत के कुटीर उद्योगों और शिल्पकारी की ओर देशवासियों का ध्यान आकृष्ट कर इसने स्वदेशी आंदोलन को भी बढ़ावा दिया। डॉ. जॉन बर्डवुड की पहल पर निर्मित इस म्यूजियम के निर्माण में डॉ. लाड का महत्वपूर्ण योगदान है। माटुंगा में किंग्स सर्कल की एक सड़क भी डॉ. लाड के नाम पर है- आधुनिक मुंबई के निर्माण में उनके उल्लेखनीय योगदान का प्रतीक।
पहले मेडिकल छात्र
डॉ. भाऊ दाजी लाड का पूरा नाम था रामचंद्र विट्ठल लाड। उनका जन्म १८२२ में गोवा के मंड्रेम (मंजरी) में एक गौड़ सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। शतरंज में उनकी प्रवीणता को देखते हुए एक अंग्रेज ने उनके पिता को उन्हें मुंबई भेजकर अंग्रेजी शिक्षा दिलवाने के लिए राजी कर लिया। लाड ने एलफिंस्टन इंस्टीट्यूशन (एलफिंस्टन कॉलेज) में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की। शिशु हत्या पर एक निबंध लिखने के लिए एक पुरस्कार जीतकर वे यहीं पढ़ाने भी लगे। यहां रहते उन्होंने ‘ज्ञान प्रसारक सभा’ शुरू की और एलफिंस्टन फंड के ट्रस्टी बने। वे मुंबई विश्वविद्यालय के शुरुआती छात्रों में और उसकी स्टूडेंट्स लाइब्रेरी एंड साइंटिफिक सोसायटी के पहले नेटिव अध्यक्ष थे।
आज यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि मुंबई के अंग्रेज गवर्नर रॉबर्ट ग्रांट (१८३५-३८) की स्मृति में १८४५ में मुंबई में जो पहला मेडिकल कॉलेज खोला गया था, उसमें शुरू में पढ़ने के लिए भी लोग तैयार नहीं होते थे। बहुत कोशिश करने पर ग्रांट मेडिकल कॉलेज को तीन छात्र उपलब्ध हुए। इनमें एक थे भाऊ दाजी लाड। १८५० में कॉलेज से स्नातकों का जो पहला बैच निकला लाड उसका हिस्सा थे। डॉ. लाड ने १८५१ से प्रैक्टिस शुरू की और इसमें झंडे गाड़ दिए। पश्चिमी चिकित्सा के साथ उन्होंने संस्कृत में उपलब्ध आयुर्वेद का भी अध्ययन किया और इससे प्राप्त ज्ञान से उन औषधियों का भी परीक्षण किया, जो प्राचीन काल से ही अपनी चमत्कारिक शक्तियों के लिए प्रसिद्ध थीं। इसी क्रम में उन्होंने कुष्ठ रोग की दवा का परीक्षण भी किया।
इंसाफ के हमकदम
‘यह धर्मशास्त्र का नहीं, नैतिकता का सवाल है, जो नैतिक रूप से गलत है वह धार्मिक रूप से कभी सही नहीं हो सकता।’ फैसला था बॉम्बे सुप्रीम कोर्ट (अभी बंबई हाई कोर्ट) के न्यायाधीश आर्नल्ड का, जो उन्होंने २२ अप्रैल, १८६२ को वैष्णव धर्मगुरु जदुनाथजी बृजरतनजी महाराज द्वारा पत्रकार- लेखक करसनदास मुलजी के विरुद्ध दाखिल मानहानि के आरोप खारिज करते हुए कहे। महाराज अपने भक्तों की पत्नी व बेटियों से ‘चरण सेवा’ कराने के लिए काफी विवादास्पद हो गए थे। महिला भक्तों का यह शोषण कभी-कभी हद पार कर जाता था। इस मामले में जिन गवाहों से जिरह की गई उनमें महाराज के निजी डॉक्टर डॉ. लाड प्रमुख थे। उनकी इस जानकारी ने तो भूचाल ही पैदा कर दिया कि जदुनाथजी महाराज सिफलिस नामक भयानक यौन रोग से ग्रस्त हैं। बॉम्बे सुप्रीम कोर्ट ने महाराज को दोषी ठहराते हुए मुलजी को आरोप मुक्त कर दिया।
डॉ. लाड ने १८६९ से १८७१ तक दो कार्यकालों के लिए बॉम्बे के शेरिफ के रूप में कार्य किया। शिक्षा, विशेषकर नारी शिक्षा के प्रबल समर्थक होने के कारण उन्हें मुंबई में शिक्षा बोर्ड का सदस्य नियुक्त किया गया था। उनके नाम पर एक बालिका विद्यालय की स्थापना की गई, जिसका खर्च उनके मित्रों और प्रशंसकों ने उठाया।
डॉ. लाड ने दुर्लभ प्राचीन भारतीय सिक्कों का एक बड़ा संग्रह एकत्र किया था। उन्होंने भारतीय पुरावशेषों का अध्ययन किया, शिलालेखों की गवेषणा की और प्राचीन संस्कृत लेखकों की तिथियों और इतिहास का पता लगाया। रॉयल एशियाटिक सोसाइटी की बॉम्बे शाखा की पत्रिका में उन्होंने अपने कई शोधपत्रों का योगदान किया। इंग्लैंड, फ्रांस , जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका में विभिन्न वैज्ञानिक समाजों ने उन्हें अपनी सदस्यता प्रदान की। भारत में हो रहे राजनीतिक घटनाक्रमों में डॉ. लाड ने बहुत गंभीरता से रुचि ली। बॉम्बे एसोसिएशन और ईस्ट इंडियन एसोसिएशन भी अपने अस्तित्व के लिए उनके शुक्रगुजार हैं।
डॉ. लाड का देहांत मई, १८७४ को हुआ।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)