विमल मिश्र
कोलकाता के पास रामकृष्ण मिशन के बेलूर मठ का नजारा जिन लोगों ने स्वामी विवेकानंद की विरासत के दर्शन के लिए लिया है उन्हें यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि उस रामकृष्ण मंदिर की कल्पना सवा सौ वर्ष से भी पहले मुंबई की कान्हेरी केव्ज की चट्टानी शिल्प को देखकर हुई थी।
स्वामी विवेकानंद १८९२ में पहली बार मुंबई (तब बम्बई) आए थे। उन दिनों चर्चगेट स्टेशन नहीं होता था। ट्रेनें कोलाबा और अंधेरी के बीच चला करतीं। स्वामीजी छबीलदास लालूभाई और उनके पुत्र रामदास छबीलदास के पिकनिक वाले बोरीवली के बंगले में अतिथि बने। वर्षाकाल था। एलिफेंटा गुफाओं में जाना नहीं हो सका, तब स्वामीजी का यह मलाल दूर किया छबीलदास पिता-पुत्र ने पड़ोस की कान्हेरी गुफाओं का भ्रमण कराके।
३१ मई, १८९३ की शिकागो की धर्म संसद में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए अमेरिका की यात्रा पर स्वामी जी मुंबई बंदरगाह से ही चले थे। जहाज पर उन्हें विदाई देने एक भारतीय राजा के सेक्रेटरी मुंशी जगमोहन लाल और स्कूल टीचर अलासिंगा पेरूमल आए थे। जुलाई, १८९२ के अंतिम सप्ताह का यह मुंबई आगमन इससे एक वर्ष पहले का था। यहां उनकी मेजबानी की शहर के धनी व्यापारी और प्रसिद्ध बैरिस्टर सेठ रामदास छबीलदास ने नेपियन सी रोड की दोराब शॉ लेन स्थित अपने तिमंजिला घर ‘समुद्र विला’ में। चूंकि कान्हेरी की गुफाएं मुख्य शहर से लगभग २२ किलोमीटर दूर हैं इसलिए अनुमान है कि स्वामी जी ने वहां से आठ घोड़े वाली शिकरम गाड़ी ली होगी या फिर अंधेरी तक की रेलगाड़ी ग्रांट रोड से पकड़कर घोड़ागाड़ी से बोरीवली पहुंचे होंगे।
कान्हेरी केव्ज और बेलूर मठ
कान्हेरी गुफाएं भारत की सबसे बड़ी बौद्ध गुफाओं (संख्या १०० से अधिक) में से हैं। रॉक कट वास्तुकला में गहरी रुचि होने से स्वामी जी ने प्रत्येक गुफा का बारीकी से अवलोकन किया और गुफाओं १, २ और ३ के विशाल स्तंभों, मूर्तिकला और स्तूप से विशेषकर मोहित हुए। संभवत: गुफा ३ के चैत्य हॉल और गुफा १० के सभा हॉल ने ही उन्हें बेलूर के रामकृष्ण मिशन के भविष्य के रामकृष्ण मंदिर के नट मंदिर (प्रार्थना कक्ष) के डिजाइन की अवधारणा दी हो। स्वामी विज्ञानानंद ने स्वामीजी के इन विचारों को १९३८ में रामकृष्ण मंदिर का निर्माण करके मूर्त किया। संभव है स्वामी जी गहराई से उनके अध्ययन के लिए बाद में भी मुंबई आए हों।
कान्हेरी गुफाओं में स्वामीजी के इस अध्ययन के बारे में सिस्टर क्रिस्टीन ने अपने संस्मरणों में लिखा है, ‘स्वामी जी जब थाउजेंड आइलैंड्स में थे तो उन्होंने न केवल भारत, अमेरिका के अपने अनुयायियों के लिए भी भविष्य की योजनाएं बनार्इं। एक दिन हमें संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘हमारे पास भारत में एक सुंदर जगह होगी, उस द्वीप पर, जिसके तीन तरफ समुद्र होगा। वहां छोटी-छोटी गुफाएं होंगी, जिनमें दो-दो लोग रह सकेंगे। प्रत्येक गुफा के बीच में नहाने के लिए पानी का एक ़कुंड होगा और हर गुफा तक पीने का पानी ले जाने वाली पाइप होंगी। असेंबली हॉल के लिए नक्काशीदार खंभों वाला एक बड़ा कक्ष होगा, और पूजा के लिए उससे भी विस्तृत चैत्य हॉल।’ ऐसा लग रहा था कि वे हवाई महल बना रहे हों। हममें से किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह कभी साकार भी होगा।’
सिस्टर क्रिस्टीन ने कई वर्षों बाद ‘१०९ गुफाओं वाले निर्जन द्वीप’ की अपनी इस यात्रा के बारे में लिखा है, ‘यहां पहुंचकर मुझे छोटी सी एक पहाड़ी मिली, जिसके ऊपर हमें पहुंचाती थीं पत्थर की नक्काशीदार सीढ़ियां। अहा, पहाड़ी की चोटी से क्या नजारा था! तीन ओर समुद्र, पानी की ओर जाता एक जंगल, आराम करने के लिए नक्काशीदार कुर्सियां, शानदार अनुपात वाले नक्काशीदार हॉल। सब कुछ वही था-तीन तरफ समुद्र वाला द्वीप, शानदार नक्काशीदार सभा भवन, चैत्य हॉल, छोटी कोठरियां-जिनमें से प्रत्येक में दो पत्थर के बिस्तर, कोठरियों के बीच पानी के कुंड, यहां तक कि पानी ले जाने के लिए पाइप भी! जैसे कोई सपना हो, जो अप्रत्याशित रूप से सच हो गया हो!’ सिस्टर क्रिस्टीन आगे लिखती हैं, ‘ऐसा लगता है जैसे स्वामी जी को अपने पिछले जन्म की याद थी, जिसमें वे यहां रहते थे। उस समय यह स्थान अज्ञात और विस्मृत था। स्वामी जी को आशा थी कि किसी दिन वे इसे प्राप्त कर लेंगे और इसे अपने भविष्य का कोई कार्य केंद्र बना देंगे। यह कोई कठिन काम नहीं था, क्योंकि उन्हें मालूम था कि यदि वे रामदास से इन्हें अपने भविष्य के कार्य के लिए मांगते तो छबीलदास पिता-पुत्र सहर्ष सहमत हो जाते, क्योंकि तब यह उनकी संपत्तियों में शामिल था।’ छबीलदास लालूभाई की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी केसरबाई और उनके दो बेटे जन्मेजय और भद्रसेन परिवार के साथ इस घर में रहते रहे। लगभग दो दशक पहले, जन्मेजय की बेटी हंसाबेन गोरागांधी को यह संपत्ति विरासत में मिली और उन्होंने बंगले को तोड़कर एक बहुमंजिला अपार्टमेंट इमारत खड़ी कर दी। नेपियन सी रोड का ‘समुद्र विला’ बंगला अब बहुत जीर्ण-शीर्ण हालत में है।
छबीलदास बने मेजबान
सेठ रामदास छबीलदास ही मुंबई में स्वामी जी के पहले मेजबान थे। इंग्लैंड की स्नातकोत्तर कला और कानून की डिग्रियों के धाक होने के साथ संस्कृत के विद्वान और वेदों व उपनिषदों के अच्छे ज्ञाता रामदास स्वामी जी से पहले अपने बंगले पर आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जैसी कई आध्यात्मिक हस्तियों की मेजबानी ही नहीं कर चुके थे, बल्कि आर्य समाज, मुंबई के संस्थापक सदस्य भी थे। एक दिन उन्होंने स्वामीजी को चुनौती दी, ‘स्वामी जी, आप साकार रूप में ईश व मूर्तिपूजा और ऐसे ही अन्य सिद्धांतों को सत्य बताते हैं। यदि आप वेदों में उद्धृत तर्कों से इन सिद्धांतों को सिद्ध कर सकें तो मैं आर्य समाज छोड़ दूंगा।’ स्वामीजी ने अपने अकाट्य तर्कों से छबीलदास के संदेहों को दूर कर दिया और सेठजी को अपना वादा पूरा करना पड़ा। उन्होंने स्वामीजी को कुछ अमूल्य संस्कृत पुस्तकें भी भेंट कीं।
मुंबई में स्वामी विवेकानंद की याद दिलाने को आज कई शैक्षिक और अन्य संस्थाएं हैं। गेटवे ऑफ इंडिया पर उनकी प्रतिमा के अलावा पश्चिमी उपनगरों से गुजरती सबसे मशहूर एस. वी. रोड भी उनके नाम पर है, पर १३१ वर्ष पहले स्वामी जी की मुंबई यात्रा की ज्यादा जानकारियां उपलब्ध नहीं हैं। माना जाता है दो महीने के इस प्रवास में स्वामी जी मुंबई के कई और स्थानों पर गए। ट्रेन से पुणे की यात्रा पर भी, जिसमें उनके सहयात्री थे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और बोरीबंदर स्टेशन पर उन्हें विदा करने वाले थे महान क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा। १८९९-१९०० में पश्चिम की दूसरी यात्रा के बाद ६-७ दिसंबर, १९०० को वे फिर मुंबई आए और विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन से सीधे कलकत्ते की ट्रेन पकड़कर रवाना हो गए। पश्चिमी परिधान में इस बार उन्हें कोई पहचान नहीं सका।
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)