मुंबई में चर्चगेट और फ्लोरा फाउंटेन के बीच पारसियों का पवित्रतम माना जानेवाला भीखा बहराम कुआं ३०० वर्ष का हो गया है। कई चमत्कारों से जुड़ा यह महिमावान कुआं पारसी धर्मावलंबियों के सबसे पवित्र स्थलों में से है।
विमल मिश्र
१७१५ में गुजरात के भरूच के धनी पारसी व्यापारी भीखाजी बहरामजी कारोबार के सिलसिले में मुंबई आते समय गुजरात के सुल्तान और मराठों के बीच युद्ध में फंस गए थे। जान का खतरा था। वैâद करनेवाले मराठों ने उनसे पारसी होने के सबूत जानने चाहे तो उन्होंने ‘सुदरो’ (सदरा) और ‘कस्ती’ दिखाए और छूट गए। मुंबई आकर फोर्ट के अंग्रेज बाजार में उन्होंने कारोबार का सिलसिला जमाया और खूब तरक्की की। परोपकारी स्वभाव के इस पारसी व्यापारी ने चर्चगेट और फ्लोरा फाउंटेन के बीच १७२५ में एक कुआं ईश्वर के प्रति आभार प्रदर्शन के रूप में लोगों की प्यास बुझाने के लिए खुदवाया। तब से तीन शताब्दियां बीत चुकी हैं, भीखा बहराम कुआं रीता नहीं हुआ है। जल स्तर ही नहीं, इसके पानी की मिठास भी जस की तस कायम है।
भीखा बहराम कुएं को लेकर एक रोचक कहानी है। भीखाजी को बार-बार के सपनों में एक दैविक अनुभूति हुई, जिनमें परमात्मा उन्हें निर्दिष्ट स्थान पर एक कुआं खुदवाने का निर्देश देते थे। दो बार यह निर्देश भूल जाने पर भीखाजी को विदेशी कारोबार में बहुत घाटे का सामना करना पड़ा तो उन्होंने स्वप्न पूर्ति के प्रयास शुरू किए। कुएं के लिहाज से निर्दिष्ट स्थान अव्यावहारिक था। एक, समुद्र के बहुत करीब होने के कारण यहां केवल खारा पानी ही मिलने की संभावना थी। दूसरे, दूर होने के कारण इसका पानी घर तक लाना महंगा सिद्ध होनेवाला था। कुआं खुदवाने की मंजूरी लेने जब भीखाजी ब्रिटिश अधिकारियों के दरवाजे पहुंचे तो उन्होंने सपने की बात सुनकर खदेड़ दिया। लोग बाग भी मजाक उड़ाने लग गए, पर भीखाजी जिद ठान बैठे थे। उन्होंने अपने आदमियों को जैसे ही यहां खुदाई शुरू करने का आदेश दिया, कुदालों के जमीन से टकराते ही साफ और मीठे पानी का सोता फूट पड़ा। कुएं के साथ ही भीखाजी ने पास ही एक पनचक्की और पशुओं को पानी पिलाने के लिए एक नांद भी बनवाई।
३०० साल पहले का जमाना था, जब कहीं भी आज की तरह पानी के लिए पाइपलाइन नहीं हुआ करती थी। मुंबईवासियों को काम चलाना पड़ता था कुओं और बावड़ियों से। इसका लाभ खासकर मुंबई में कारोबार के लिहाज से आनेवाले कारोबारी और उनकी बैलगाड़ियों में जुते मवेशियों को मिलता था। उस जमाने से जब आज के चर्चगेट का नामो-निशान नहीं था, अरब सागर की अगाध जलराशि के बिलकुल करीब भीखाजी कामा कुएं का जल पूरे क्षेत्र की प्यास बुझा रहा है। वीर नरीमन रोड और कर्मवीर भाऊराव पाटील मार्ग पर सीटीओ के बिलकुल पास के तिराहे पर स्थित यह कुआं पूरे क्षेत्र का सबसे प्राचीन नैसर्गिक स्रोत वाला कुआं है। पानी की मिठास के लिहाज से आज भी बेमिसाल। यह सिर्फ मीठे पानी का कोई आम सा कुआं नहीं है, देशभर के पारसियों का ‘पवित्रतम’ कुआं है – लोगों (उनके पालतू पशुओं का भी) का असाध्य रोग दूर करने और मनोकामना पूर्ण करनेवाला पावन तीर्थ स्थल। इसकी महिमा और चमत्कार की कई कहानियां प्रचलित हैं। यहां मौजूद जामुन का मशहूर वृक्ष कई वर्षों पहले कई जानें बचाने में मददगार बना था, जब एक बस उससे टकराकर कुएं में गिर जाने से बाल-बाल बच गई थी। इसी वृक्ष की छांव में मौजूद यह कुआं ‘ए-१’ हेरिटेज ग्रेड का निर्माण होने के कारण संरक्षित सूची में दर्ज है। कुएं की मौजूदा वैâनोपी १९५४ की देन है। पानी के रिसाव के कारण कुछ वर्ष पहले कुएं के प्लेटफॉर्म को १०० मिलीमीटर और र्इंटों की चहारदीवारी को २५० मिलीमीटर ऊंचा करने का काम हुआ और फर्श पर कोटा पत्थरों की जगह नई सिरामिक टाइल्स भी लगाई गई।
३०० साल की विरासत
भीखाजी के वंशज जब कुएं का रखरखाव ठीक से नहीं कर पाए तब यह जिम्मेदारी सोराबजी फिरोजशाह गोदरेज और पालोनजी शापूरजी मिस्त्री जैसे कारोबारियों ने उठाई। पीढ़ियों से इसकी देखभाल परवेज दमानिया परिवार करता आ रहा है।
इन वर्षों में इस कुएं के स्वरूप में कई अंतर आए, पर पानी की मिठास में फर्क नहीं पड़ा। १८९६ में जब ब्यूबोनिक प्लेग ने मुंबई में कहर मचाया हुआ था यह पानी हजारों प्यासों का जीवन आधार बना। फोर्ट इलाके में ऐसे कई कुएं नल का पानी आने के बाद पाट दिए गए। १९७० तक इसे फोर्ट इलाके में आस-पास की इमारतों व कार्यालयों में पीने के लिए सप्लाई किया जाता रहा। आज भी पारसी घरों में यह पूजा के अलावा उन धर्मभावियों की प्यास बुझाने के काम आता है, जो धार्मिक विश्वासवश नल का पानी नहीं पीया करते। इनमें क्रॉस मैदान वाले छोर से गैर पारसी धर्मावलंबी शामिल हैं। भीखा बहराम बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज के चेयरमैन बुरजोर अंटीया ने जानकारी दी, ‘एक जमाने में इन परिवारों में ख्यात मफतलाल परिवार का भी शुमार हुआ करता था।’ कुएं का पानी इलाके में कहीं आग लगने पर आग बुझाने के काम में फायर ब्रिगेड के काम में भी आता है। भिश्ती और हाथगाड़ियों में लकड़ी के ड्रम लादे कुछ मजदूर आपको पोर्च जैसी शेप वाले इस परिसर में आज भी दिख जाएंगे।
पारसी कुएं के पास वीर नरीमन रोड पर कोलाबा और सीप्झ के भूगर्भीय मेट्रो-३ बनते समय उसके अलाइनमेंट को लेकर पारसी समाज को आशंकाएं थीं कि इससे कुएं के पानी के स्रोत समाप्त हो जाएंगे और उसके मधुर ‘अमृतमय’ जल के खारा और कुएं के प्रदूषित होने का खतरा बढ़ जाएगा। मुंबई मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन की तत्कालीन प्रबंध निदेशक अश्विनी भिड़े ने इन आशंकाओं का निराकरण करते हुए टनल बनाते समय जरूरी एहतियात बरते जाने का आश्वासन दिया। २०२५ में खुद पारसी पंचायत द्वारा नियुक्त भूगर्भशास्त्री डॉ. पी.एस. रामकृष्ण ने इसे निराधार शंका करार दिया।
पारसी वेल को लेकर कुछ साल पहले कई बार फिर असंतोष और अशांति की नौबत आई है। १९९७ में इसके गिर्द रोटरी क्लब द्वारा टॉयलेट, पेय जल और हेल्थ सेंटर बना दिए जाने के विरुद्ध यहां के ट्रस्टियों ने १६ वर्ष लंबी अदालती लड़ाई लड़ी है और कामयाब रहे हैं। कुछ समय पहले कुएं के ऊपर बनी वैâनोपी के ऊपर लगे बहुमूल्य हेरिटेज ग्लास पैनेल्स उपद्रवियों ने तोड़ डाले थे। गैर पारसियों के प्रवेश पर प्रतिबंध को तोड़ने की घटनाएं भी यदा-कदा होती रहती हैं, पर शांतिप्रिय पारसी कौम के स्वभाव के अनुरूप विवाद हमेशा बीच-बचाव और सुलह-सफाई से ही सुलझता रहा है। इस पारसी विरासत के रखवालों की एक शिकायत अभी तक कायम है- पैâशन स्ट्रीट के दुकानदारों और फेरीवालों द्वारा कुएं के पास स्टॉल बनाया जाना। इधर आपका पारसी वेल आना हुआ हो तो बत्तियां जलाने आए इक्का-दुक्का पारसियों को छोड़ भीतर आपको कोई नहीं मिलेगा। यहां भीड़ आपको दिखेगी पारसी नव वर्ष के अलावा आवा मास में और विशेष अवसरों पर होनेवाले धार्मिक अनुष्ठानों में। होशांग गाटला- जो ‘आवा’ के दिन महीने-दर-महीने ‘हमबंदगी’ करने यहां आया करते हैं- बताते हैं, ‘हमारे धर्म में माना जाता है कि जो लोग साथ-साथ प्रार्थना करते हैं, रहते भी साथ-साथ हैं।’
(अगले अंक में ‘पारसी गेट’)
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)