मुख्यपृष्ठस्तंभस्वीसी संडे : ...हुजूर बड़ा, जुर्म है ये बेखबरी

स्वीसी संडे : …हुजूर बड़ा, जुर्म है ये बेखबरी

एम.एम.सिंह

मोदी का कार्यकाल हिंदुस्थान के संसदीय इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा। कहनेवाले तो यह भी कहते हैं कि संसद ने अपनी गरिमा खो दी है। राज्यसभा के ६० सदस्यों ने सभापति जगदीप धनखड़, जो हिंदुस्थान के उपराष्ट्रपति भी हैं, के प्रति अविश्वास व्यक्त किया है। विपक्ष के इन संसद सदस्यों ने उन्हें पद से हटाने की मांग करते हुए एक प्रस्ताव का नोटिस दिया है। हालांकि, तकनीकी तौर पर देखा जाए तो प्रस्ताव पर मतदान की संभावना नहीं है और यदि ऐसा होता है तो यह गिर जाएगा, लेकिन यह मुद्दे से अलग है। वास्तविक और लोकतंत्र के लिए हानिकारक बात सभापति और विपक्षी सदस्यों के बीच विश्वास की कमी है। विपक्ष ने उनकी पक्षपातपूर्णता के प्रमाण के रूप में माननीय धनखड़ के पैâसलों और उनके सार्वजनिक बयानों को उद्धृत किया है। दरअसल, धनखड़ का भाजपा के सांसदों को एक स्थगन प्रस्ताव के विषय पर बोलने की अनुमति देने का निर्णय, जिसे उन्होंने स्वयं ९ दिसंबर को खारिज कर दिया था, विपक्ष द्वारा चरम कदम के लिए अंतिम ट्रिगर था। इन सदस्यों ने अन्य बातों के अलावा, राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को बोलने की अनुमति न दिए जाने और धनखड़ द्वारा सरकार के विचारों को सार्वजनिक रूप से प्रचारित करने तथा विपक्ष की आलोचना करने का पैटर्न भी देखा है। अक्सर, ये वो राजनेता होते हैं, जो पक्षपातपूर्ण कंपटीशन के जरिए राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष जैसे गैर-राजनीतिक पदों पर चुने जाते हैं। हालांकि, होना यह चाहिए कि एक बार पदभार ग्रहण करने के बाद वे काफी हद तक विवाद से दूर रहें और ऐसा होता भी आया है, लेकिन यहां पर हालात जुदा हैं और जिसके चलते राज्यसभा के अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस सामने आया है, जो कि देश के लोकतंत्र के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण मोड़ माना जाना चाहिए।
संसद एक गरिमा पूर्ण जगह है, जहां पर देश के हर कोने से चुने गए सांसद अपनी समस्याओं को सामने रखते हैं। दरअसल, यह एक ऐसी पवित्र जगह है, जहां देश के हर नागरिक के दुख-दर्द को आवाज मिलती है सांसदों के जरिए। सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ आवाज उठाना संसद में बैठे सांसदों का नैतिक धर्म होता है, लेकिन बदले परिदृश्य में सरकार की आलोचना को राष्ट्रविरोधी कृत्य के रूप में पेश किया जाता है और संस्थाओं और व्यक्तियों पर अक्सर आक्षेप लगाकर निशाना साधा जाता है। आम जनता भी अब यह कह सकती है कि संसद में भाजपा और विपक्ष के बीच बहुत कम बातचीत होती है। अगर संसद सिर्फ राजनीतिक बयानबाजी का एक और मंच बन जाती है तो यह लोकतंत्र को मजबूत करने के बजाय उसे कमजोर करेगी। संसद की कार्यवाही से नागरिकों को यह संदेश मिलना चाहिए कि सरकार उनकी आवाज के प्रति संवेदनशील है।
जब संसद सरकार और विपक्ष के बीच आमने-सामने की पोजिशन में होती है, तो अध्यक्ष से अपेक्षित है कि वह मध्यस्थता करें और यथोचित (पक्षपात पूर्ण नहीं) रास्ता निकालें। अध्यक्ष की यह भूमिका तभी संभव है, जब उस पर बैठा इंसान न्यूट्रल हो और उसे गैरजानिबदार माना जाए। यदि अध्यक्ष विपक्ष यह कहे कि उनका रवैया विपक्ष के प्रति पक्षपात पूर्ण है तो यह लोकतंत्र के लिए घातक माना जाना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि जब सभापति संसद में अपने पद पर विराजमान हों तो उन्हें यह भूल जाना चाहिए कि वह किस दल से संबंधित हैं। उनकी प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि वह नागरिकों के हित का ख्याल रखें न कि उनके उनकी पार्टी के एजेंडे को परोसने की कोशिश करें। सभापति से अपेक्षा करना कोई अनुचित मांग नहीं है। इस बात में दो राय नहीं है कि तकनीकी तौर पर विपक्ष की यह मांग खारिज की जा सकती है, जिससे विपक्ष भी वाकिफ है। बावजूद, इसके यदि विपक्ष इस तरह का कदम उठाने को मजबूर है, तो सरकार को भी गंभीरता से इस मामले पर ध्यान देना होगा।
एक बहुत बड़े फितरत से फकीर शायर थे
ताज भोपाली। उनकी एक नज्म याद आती है
तुम्हारी बज्म के बाहर भी एक दुनिया है
मेरे हुजूर बड़ा जुर्म है ये बेखबरी।

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