कविता श्रीवास्तव
पत्रकारिता को बहुत ही सम्मानजनक दर्जा हासिल रहा है, लेकिन मीडिया का बहुत बड़ा वर्ग आज चमचों की फौज बनकर रह गया है क्या। कांग्रेसी नेता राहुल गांधी ने ऐसा ही कहा है। वे दहाड़ कर यह बात कहते हैं। उनका ही नहीं विपक्ष के लगभग सभी नेताओं का कहना है कि मीडिया उनकी बातों को अपने समाचारों में बहुत कम दिखाता है और वह सत्ताधारी पक्ष का ही प्रचार करता दिखता है। विपक्ष ही नहीं बीते दिनों खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा कि मीडिया की प्रकृति बदल गई है और वह पहले जैसी तटस्थ इकाई नहीं है, जिसमें पत्रकार अपने विचारों और विचारधाराओं को बढ़ावा देते हैं। स्वयं कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस न करने की अपनी वजह बताते हुए उन्होंने कहा कि मैं संसद के प्रति जवाबदेह हूं। उन्होंने कहा कि आज पत्रकारों की पहचान उनकी अपनी प्राथमिकताओं से की जाती है। मीडिया अब एक गैर-पक्षपातपूर्ण संस्था नहीं है। लोग अब उनकी मान्यताओं से भी अवगत हैं। पहले मीडिया चेहराविहीन हुआ करता था। मीडिया में कौन लिख रहा है, उसकी विचारधारा क्या है, पहले किसी को इसकी चिंता नहीं थी। उन्होंने कहा कि अब एक नई संस्कृति विकसित हुई है जो अपने कार्यों के बारे में चिंतित न होकर मीडिया को मैनेज करने पर केंद्रित है। देश के बड़े नेताओं द्वारा ऐसा कहा जाना क्या पत्रकारिता के कुछ वर्ग को कटघरे में खड़ा नहीं करता है? इन नेताओं के दावों और कई चैनलों पर दिखने वाले एकतरफा समाचारों या एकतरफा से डिबेट-शो का आकलन करें तो अक्सर ऐसा महसूस होता है कि टीवी स्क्रीन पर चमकती पत्रकारों की बड़ी जमात किसी का पक्ष रखने के लिए ही काम कर रही है। वह तटस्थ नहीं है। वह जिसके पक्ष में कहलवाना चाहती है उसके खिलाफ सुनने तक को तैयार नहीं है। दिखता यह है कि कुछ लोग केवल तोते की तरह रटी-रटायी बातों पर ही सिमटे रहना चाहते हैं। ऐसा लगता है मानो वे अपने मालिक की वफादारी में दुम हिलाते रहने पर मजबूर हैं। कुछ ऐसा ही संकेत पक्ष-विपक्ष दोनों के दावों से भी नजर आता है। फिर यह सवाल भी उठता है कि ‘गोदी मीडिया’ क्या है? २०१४ के बाद से चर्चा में तो यह भी रहा है कि विपक्ष के अनेक नेता कहते हैं कि उनकी सही बातें तो मीडिया दिखाएगा नहीं। ढेर सारे टीवी एंकर अपनी शर्तों पर चर्चाएं कराते दिखते हैं। उनके पसंद की बात न होने पर खुद ही तिलमिला उठते हैं। कई बार वे खुद ही चीखते हैं, चिल्लाते भी हैं। अपनी सारी ऊर्जा किसी एक पक्ष की तरफदारी, उसकी प्रशंसा और खुलकर उसकी चमचागीरी करने पर खपाने वाली पत्रकारिता को क्या समझा जाए? आम दर्शक यह चुपचाप देखता है, समझता है और मजे लेता है। सच्चाई को ही झुठला देना पत्रकारिता नहीं हो सकती। राजनीति के अलावा ढेर सारे अन्य सामाजिक विषय कवर करना भी पत्रकारिता का दायित्व है।