मुख्यपृष्ठनमस्ते सामनाबात-जज्बात : कहीं प्लास्टिक कचरा घर न जाए पृथ्वी!

बात-जज्बात : कहीं प्लास्टिक कचरा घर न जाए पृथ्वी!

एम एम सिंह

हमारी जिंदगी में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जाने-अनजाने प्लास्टिक इतनी बुरी तरह से चिपक चुका है कि उससे छुटकारा पाना अब दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर रह गया है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि इस प्लास्टिक से तैयार हो रहे कचरे से निपटने के लिए कोशिशें नहीं हो रही हैं, बल्कि वैश्विक तौर पर कोशिश की जा रही हैं, लेकिन लालच नाम की एक बुरी बला है, जो अच्छों-अच्छों के ईमान को डिगा देती है और इस मसले के निपटान को लेकर भी कुछ ऐसा ही होता नजर आ रहा है। सबसे बड़ा उदाहरण है इस महीने दक्षिण कोरिया के बुसान में पांचवीं इंटरगवर्नमेंटल नेगोशिएटिंग कमेटी (आईएनसीएस) यानी अंतर-सरकारी वार्ता समिति की बैठक में कमेटी प्लास्टिक प्रदूषण को कम करने पर वैश्विक संधि को अंतिम रूप देने में विफल रही। प्लास्टिक प्रदूषण से पैदा होनेवाली पर्यावरणीय और स्वास्थ्य समस्याओं का मुकाबला करने के लिए आईएनसी-५ की विफलता ने ग्रह के अस्तित्व के लिए खतरे को और बढ़ा दिया है। इसके पहले मार्च २०२२ में केन्या के नैरोबी में संयुक्त राष्ट्र (यूएन) पर्यावरण मीटिंग में पहली बार इन देशों ने इसी मसले पर एकजुट होने का मौका गवां दिया था।
वैश्विक समझौते की आवश्यकता बहुत महत्वपूर्ण है। जलवायु परिवर्तन में योगदान देनेवाले अन्य कारकों की तरह, प्लास्टिक कचरे का प्रसार कोई स्थानीय समस्या नहीं है। यह हर जगह मिट्टी और पानी को जहरीले रसायनों से दूषित कर रहा है और महासागरों की रासायनिक संरचना को बदल रहा है और कार्बन सिंक के रूप में उनकी प्रभावी भूमिका को प्रभावित कर रहा है। भारी मात्रा में प्लास्टिक महासागरों में जा रहा है और निर्जन द्वीपों सहित दूर-दराज के विदेशी तटों पर बह रहा है। उत्पादन और उपयोग में कटौती के लिए समझौते के बिना, समस्या २० साल से भी कम समय में विकराल हो जाएगी। हर साल लगभग ५०० मिलियन टन नया प्लास्टिक उत्पादित किया जाता है। बात करें अपने देश की तो हिंदुस्थान पहले से ही प्लास्टिक-कचरे के संकट से जूझ रहा है। एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि हिंदुस्तान में सालाना वैश्विक प्लास्टिक कचरे का लगभग २० प्रतिशत हिस्सा होता है, जो तेजी से शहरीकरण और तेज आर्थिक विकास का नतीजा है। केवल लगभग ६० प्रतिशत प्लास्टिक कचरे को ही रिसायकल किया जाता है, जो कि ज्यादातर अकुशल अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा किया जाता है। तेजी से सख्त होते विनियामक प्रतिबंध काफी हद तक अप्रभावी रहे हैं, क्योंकि उन्हें कुशल निगरानी या कार्यान्वयन द्वारा समर्थित नहीं किया गया है। जरूरी यह है कि इस तरह की वार्ताओं के फेर में पड़ने के बजाय हम अपने तौर पर कोशिश करें कि प्लास्टिक का जहर हमारे रग-रग में पैâलने से रोकें और हमारे ग्रह को प्लास्टिक का कचरा घर बनने से बचा सकें।

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